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________________ प्रस्तावना जिनके निर्वाहमें सन्देह है ऐसे नये मनुष्योंसे भी संघको बढ़ाना चाहिए। धर्मका काम अनेक मनुष्योंसे चलता है अतः समझा-बुझाकर जो जिस कामके योग्य हो उसे उसमें लगा देना चाहिए। उपेक्षा करनेसे मनुष्य धर्मसे दूर हो जाता है। ऐसा होनेसे एक ओर तो धर्मको हानि होती है, दूसरी ओर उस मनुष्यका संसार दीर्घ हो जाता है। ..सोमदेवने आगे लिखा है कि यह जिनेन्द्रदेवका धर्म अनेक प्रकारके मनुष्योंसे व्याप्त है। जैसे मकान एक स्तम्भपर नहीं ठहर सकता वैसे ही यह धर्म भी एक व्यक्तिपर स्थिर नहीं रह सकता। उन अनेक प्रकारके मनुष्योंमें सर्वप्रथम तो धर्मका पालन करनेवाले श्रावक और साधु होते हैं । दूसरे, ऐसे विद्वानोंकी भी परम्परा बनाये रखने की आवश्यकता है जो ज्योतिष, मन्त्र और पूजा प्रतिष्ठा कराने में दक्ष हों; क्योंकि उनके अभावमें धार्मिक दीक्षा यात्रा प्रतिष्ठा आदि क्रियाएँ नहीं हो सकतीं। यदि उनके लिए दूसरे धर्मके अनुयायोकी मदद ली जायेगी तो धर्मकी उन्नति नहीं हो सकती, धर्मके विषयमें पराश्रित रहनेसे तो धर्मको हँसी ही होती है । अतः इन सबका संरक्षण करना आवश्यक है। व्रती और साधुओंको स्थिति चौवालोसवें कल्पमें सोमदेव सूरिने प्रजित व्यक्तियोंके लिए व्यवहृत होनेवाले अनेक शब्द तथा उनकी निरुक्तियां की हैं। वे शब्द है-जितेन्द्रिय, क्षपण, श्रमण, आशाम्बर, नग्न, ऋषि, मुनि, यति, अनगार, शुचि, निर्मम, मुमुक्ष, शंसितव्रत, वाचंयम, अनूचान, अनाश्वान्, योगी, पंचाग्निसाधक, ब्रह्मचारी, गृहस्थ, वानप्रस्थ, शिखाच्छेदि, परमहंस, तपस्वी, अतिथि, दीक्षितात्मा, श्रोत्रिय, होता, यष्टा, अध्वर्यु, वेद, त्रयो, ब्राह्मण, शैव, बौद्ध, सांस्य और द्विज । इनमें से शंसितव्रत आदि शब्द वैदिक परम्परामें व्यवहृत होते हैं । सोमदेवने उनकी वैदिक व्याख्याओंका निरसन करके जैनधर्मानुकल निरुक्तियां की हैं। यहां यह लिखना अप्रासंगिक न होगा कि सोमदेव सूरिका नोतिवाक्यामृत प्रायः वैदिक श्रुति स्मतियोंसे प्रभावित है। जब उसका माणिकचन्द ग्रन्थमाला बम्बई से प्रथम बार प्रकाशन हआ तो उसके सम्पादक पं. पन्नालालजी सोनीने कई सूत्रोंके सम्बन्धमें पाद-टिप्पणमें यह आशय व्यक्त किया कि टीकाकारने स्वयं ही सूत्र गढ़कर मूलमें शामिल कर दिये हैं। श्री नाथूरामजी प्रेमीने अपनी भूमिकामें सोनीजीके उक्त पाद-टिप्पणोंपर आपत्ति की, किन्तु 'एक विचारणीय प्रश्न के अन्तर्गत यह भी लिखा कि "इस ग्रन्थका वर्णाचार और आश्रमाचारकी व्यवस्थाके लिए वैदिक साहित्यकी ओर बहुत अधिक झकाव है। इस र विद्यावृद्ध, आन्वीक्षिकी और त्रयी समुद्देशोंको पढ़नेसे पाठक हमारे अभिप्रायको अच्छी तरह समझ जायेंगे।" साथ ही प्रेमीजीने जैनधर्मके मर्मज्ञ विद्वानोंसे इस प्रश्नका विचारपूर्वक समाधान भी चाहा कि एक जैनाचार्यकी कृतिमें आन्वीक्षिको और त्रयीको इतनी अधिक प्रधानता क्यों दी गयी। और उपासकाध्ययनके कुछ इलोकोंके प्रकाशमें यह भी सम्भावना व्यक्त की कि "कहीं सोमदेव सूरि वर्णाश्रम-व्यवस्था और तत्सम्बन्धी वैदिक साहित्यको लौकिक धर्म तो नहीं मानते थे।" नीतिवाक्यामृतके त्रयी समुद्देशमें चार वेद, छह वेदांग, इतिहास, पुराण, मीमांसा, न्याय और धर्मशास्त्रको त्रयी कहा है और त्रयीसे वर्णाश्रमोंकी धर्माधर्म व्यवस्था बतलायी है। यह पूरा कथन वैदिक परम्पराके अनुसार है। किन्तु उपासकाध्ययनमें त्रयोको निरुक्ति करते हुए लिखा है कि जन्म, जरा और मरण यह त्रयी संसारका कारण है। इस त्रयीका जिस त्रयी ( सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र ) से विनाश होता है वही त्रयी है। इसी तरह वेदकी निरुक्तिमें कहा है-"जो देह और जीवके भेदको जानता है वही वेद है । जो सब जीवोंके विनाशका कारण है वह वेद नहीं है।" नीतिवाक्यामृत ( विद्यावृद्ध समु० २२ सू० )में स्त्रीके साथ या स्त्रीके बिना वनमें रहनेवाले त्यागीको १. सो० उपार श्लो. १९२-१२४ । २. वही, श्लो० ८१०-८११ ।
SR No.022417
Book TitleUpasakadhyayan
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2013
Total Pages664
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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