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उपासकाध्ययन
उसे वि० सं०९९० माना जाता है। भावसंग्रहको भी उन्हीं देवसेनकी रचना मानकर उसका रचनाकाल भी श्रीयुत प्रेमीजीने विक्रमकी दसवीं शताब्दीका अन्तिम चरण माना था। तदनुसार भावसंग्रह उपासकाध्ययनका पूर्वज ठहरता है। किन्तु पं० परमानन्दजीने भावसंग्रहमें चर्चित कुछ उक्त विषयोंके आधारपर उसके उक्तकालमें आपत्ति करते हुए उसे सुलोचनाचरित ( अपभ्रंश ) के रचयिता देवसेनकी रचना बतलाया और श्रीजुगलकिशोरजी मुख्तारने उसका निरसन करते हए भावसंग्रहको दर्शनसारके रचयिता देवसेनकी ही कृति सिद्ध किया था। किन्तु श्रीप्रेमीजीने अपने जैन साहित्य और इतिहासके दूसरे संस्करण में पं० परमानन्दजीके मतको स्थान दिया । केकड़ीके श्री पं० रतनलालजी कटारियाने भी भावसंग्रहके दर्शनसारके रचयिता देवसेनकी कृति होनेके पक्षमें अनेक आपत्तियां हमारे पास लिखकर भेजी थीं। अतः भावसंग्रहके उपासकाध्ययनके पर्वज होने में सन्देह है। इसलिए सन्देहका निराकरण हए बिना कोई मत निर्धारित नहीं किया जा सकता। जहाँ कुछ बातें पक्ष में हैं वहां अनेक बातें विपक्ष में भी हैं। दर्शनसार, आराधनासार और भावसंग्रहकी प्रथम गाथामें 'सुरसेण' नाम विशेषण रूपमें पाया जाता है किन्तु अन्तिम गाथामें दर्शनसारमें 'देवसेनगणि' नाम है। भावसंग्रहमें विमलसेन गणधरका शिष्य लिखा है तथा आराधनासारमें केवल देवसेन नाम है। इसके साथ नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्तीरचित गोमट्रसार जीवकाण्डकी अनेक गाथाओंके अंश ज्योंके-त्यों भावसंग्रहमें वर्तमान हैं। किन्तु एक गाथा ११० ऐसी भी है जो प्रमेयकमलमार्तण्डमें उद्धृत है । ये सभी बातें विचारणीय हैं ।
[६] उपासकाध्ययनमें चर्चित दर्शन और मत
उपासकाध्ययनका प्रारम्भ करते हुए सोमदेव सूरिने प्रथम कल्पमें विभिन्न दर्शनोंमें मान्य मुक्तिके स्वरूपका उल्लेख करके उनकी आलोचना की है। इसीसे इस कल्पको सोमदेवने 'समस्तसमयसिद्धान्तावबोधन' नाम दिया है। दशमी शती और उससे पूर्व प्रचलित दार्शनिक मतोंके संकलनकी दृष्टिसे यह कल्प महत्त्वपूर्ण है। इसमें सैद्धान्त वैशेषिक, तार्किक वैशेषिक, काणाद, पाशुपत, कौल, सांख्य, कापिल, बौद्ध, जैमिनीय, बार्हस्पत्य और वेदान्त दर्शनोंका उल्लेख है। इसके अतिरिक्त सोमदेवने शैव और याज्ञिकोंका भी उल्लेख किया है। इनकी संक्षिप्त जानकारी निम्न प्रकार है। वैशेषिक
सोमदेवने वैशेषिकके दो भेदोंका निर्देश किया है-एक सैद्धान्त वैशेषिक और दूसरे ताकिक वैशेषिक । इन दोनोंमें मुख्य अन्तर यह है कि सद्धान्त वैशेषिक शिवके भक्त हैं और वे श्रद्धापर विशेष जोर देते हैं जब कि तार्किक वैशेषिक दर्शनके पूर्ण अनुयायी हैं और छह पदार्थोके जानपर विशेष जोर देते हैं। सैद्धान्तियोंका मत है कि शिवने अपने सशरीर और अशरीर रूपोंमें जिस धर्मका उपदेश दिया उसकी श्रद्धा करनेसे मोक्षकी प्राप्ति होती है। हरिभद्र सूरिने अपने षड्दर्शनसमुच्चयमें नैयायिकों और वैशेषिकोंको शैव-शिवका भक्त बतलाया है। उसके टीकाकार गुणरत्नने शिवके अनुयायियोंके शैव, पाशुपत आदि चार सम्प्रदाय बतलाये हैं और लिखा है कि नैयायिक शैव कहलाते हैं तथा वैशेषिक पाशुपत ; किन्तु पाशुपतोंके अपने पृथक् सिद्धान्त हैं और उनका वैशेषिकोंसे कोई साक्षात् सम्बन्ध प्रतीत नहीं होता। सोमदेवने स्वयं उनके मोक्ष सम्बन्धी मतका पृथक निर्देश किया है।
ताकिक वैशेषिक द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य, समवाय, विशेष और अभाव इन सात पदार्थोंके साधर्म्य और वैधर्म्यमूलक ज्ञानमात्रसे मोक्ष मानते हैं। यहां उल्लेखनीय यह है कि सप्तपदार्षीके कर्ता शिवादित्यकी तरह सोमदेवने भो अभावको पदार्थोंमें सम्मिलित किया है। यह सर्वविश्रुत है कि कणादने छह ही पदार्थ
१. अनेकान्त वर्ष ७ कि. ११-१२ । २. सो. उपा०, पृ०२। ३. "नैयायिकाः सदाशिवभकरवाच्छैनाः । वैशेषिकाः पाशुपताः ।"-षड्दर्शनसमुच्चय टीका, पृ० २० । . ४. सो० उपा०, पृ०२