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प्रस्तावना
दर्शनोंकी समीक्षा की है उममें उक्त सभी मत आ जाते हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि भावसंग्रहके कर्ता दार्शनिकसे अधिक पौराणिक थे । उन्होंने प्रत्येक मतके सम्बन्धमें प्रचलित बातोंको लेकर ही उनकी हंसी उड़ायी है । उसमें दार्शनिकता विशेष नहीं है । तीसरे गुणस्थानका वर्णन करते हए भी हरि, हर, ब्रह्मा आदि देवोंकी समीक्षा पौराणिक आख्यानोंको लेकर ही को है।
__पांचवें गुणस्थानका वर्णन करते हुए यद्यपि गुणव्रत और शिक्षाव्रतोंके भेद कुन्दकुन्दके अनुसार बतलाये हैं । किन्तु सामायिकके स्थानमें 'त्रिकाल देवसेवा' को स्थान दिया है । उपासकाध्ययनमें सामायिकका स्वरूप आप्तसेवा ही बतलाया है । तथा अष्टमूलगुण भी उपासकाध्ययनके अनुसार ही बतलाये हैं। आगे देवपूजाका कथन करते हुए स्नानके पश्चात् मन्त्रसे आचमनका फिर सकलीकरणका विधान किया है । सोमदेवने आचमनको मान्य करके भो पूजनके समय आचमन नहीं बतलाया है और न सकलीकरण बतलाया है। हाँ, जपसे पहले उन्होंने सकलीकरणका विधान किया है। भावसंग्रहमें अभिषेकसे पूर्व कंकणमद्रा और यज्ञोपवीत धारण करने का विधान किया है, सोमदेवन नहीं किया। सोमदेवने केवल इन्द्रादि देवोंका ही आह्वानन किया है। 'भावसंग्रहमें उनका आह्वानन शस्त्र और वाहनके साथ करना बतलाया है। उपासका. ध्ययनमें अष्टद्रव्योंसे पूजा करनेका फल नहीं बतलाया है, भावसंग्रहमें एक-एक गाथाके द्वारा प्रत्येकका फल बतलाया है। उपासकाध्ययन में पजनके बाद स्तवन, फिर जप और फिर ध्यानका विधान है। भावसंग्रहमें पूजनके बाद ध्यान करके आहूत देवोंका विसर्जन करना बतलाया है । उपासकाध्ययनमें विसर्जनका कोई निर्देश नहीं है।
भावसंग्रहमें इसी प्रकरण में आगे दानका वर्णन है जो उपासकाध्ययनके ४३वें कल्पके वर्णनसे मिलता है । दोनोंमें दानके चार भेद बतलाये हैं, अभयदान, आहारदान, ओषधदान और शास्त्रदान । उपासकाध्ययनमें केवल एक श्लोक-द्वारा चारों दानोंका जो फल बतलाया है, भावसंग्रहमें प्रायः वही फल चार गाथाओंके द्वारा बतलाया है । दाताके सात गुण दोनोंमें समान है। यथा,
"श्रद्धा तुष्टिर्मतिर्विज्ञानमलुब्धता क्षमा शक्तिः । यत्रेते सप्त गुणास्तं दातारं प्रशंसन्ति ॥"-उपासकाध्ययन । "मत्ती तुट्रीय खमा सदा सत्तं च लोहपरिचाओ।
विण्णाणं तक्काले सत्त गुणा होति दायारे ॥" ४९६ ॥ -भावसंग्रह। '. उपासकाध्ययन श्लो० १४४ में कहा है कि जो मूढताको सर्वथा छोड़नेमें असमर्थ है उसे सम्यक् मिथ्यादष्टि मानना चाहिए। भावसंग्रह गा० २५७ में यही बात कही है। इस तरह भावसंग्रह और उपासकाध्ययनके कुछ वर्णनोंमें समानता पायी जाती है और उन दोनोंमें कुछ ऐसी विशेष बातें भी हैं जो उससे पूर्वके उपलब्ध साहित्यमें नहीं हैं ।
___ उपासकाध्ययनका तो रचनाकाल ( वि० सं० १०१६ ) निश्चित है किन्तु भावसंग्रहके रचनाकालमें मतभेद है और उस मतभेदका कारण स्वयं भावसंग्रह ही है । __-भावसंग्रह देवसेनकी रचना है। देवसेनकी कुछ अन्य रचनाएं भी प्रकाशित हो चुकी हैं, उनके नाम हैं--दर्शनसार, आराधनासार, तत्त्वसार, नयचक्र और आलापपद्धति । इनमें-से 'दर्शनसारके अन्तमें उसका रचनाकाल ९९० दिया है। कि उसको रचना धारा नगरीमें हुई है और वहां विक्रम संवत्का चलन था इसलिए,
१. गा० ३५५ । २. गा० ३५६ । ३. गा० ४२७ । ४. गा० ४३६ । ५. गा० ४३९ । ६. "पुब्वाइरियकपाई गाहाई संचिऊण एयत्थ । सिरिदेवसेणगणिणा धाराए संवसंतेण ॥४९॥ रइओ दसंणसारो हारो मन्वाण णवसए नवई । सिरिपासगाह देहे सुविसुद्धे माहसुद्धदसमीए ॥
-जै० सा० इ० पृ० १७५ ।