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प्रस्तावना
होकर मुनिके ऊपर घोर उपसर्ग किया। विद्याधरोंका राजा रत्नशिखण्डी मुनिराज के दर्शन के लिए उसी समय वहाँ आया । वह कन्दलविलासके दुष्कर्मको देखकर बहुत क्रुद्ध हुआ और उसे शाप दिया कि इस दुष्कर्मके विपाकसे तू उज्जैनी में चण्डकर्मा नामका जल्लाद होगा ।
विद्याधरके प्रार्थना करनेपर रत्नशिखण्डोने कहा कि जब तुझे आचार्य सुदत्तके दर्शनोंका लाभ होगा और तू उनसे धर्मग्रहण करेगा तो तेरी इस शाप से मुक्ति हो जायेगी ।
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आचार्य सुदत्तका परिचय देते हुए विद्याधरोंके राजाने कहा कि एक समय आचार्य 'सुदत्त कलिंग के शक्तिशाली राजा थे । एक दिन एक चोर उनके सामने उपस्थित किया गया, वह सोते हुए एक नाईको मार डालने तथा उसका सर्वस्व हरण करनेका अपराधी था । राजाने धर्माधिकारियोंसे उसको दण्ड देने के विषय में परामर्श किया। उन्होंने कहा कि इस चोरने सोते हुए मनुष्यका घात किया है अतः इसे नाना प्रकारकी यन्त्रणाएँ देकर इस तरह सताया जाये कि दस-बारह दिन में इसकी मृत्यु हो जाये। यह सुनकर राजाको क्षत्रिय जीवन से बड़ी अरुचि हुई और उन्होंने राज्य त्याग कर जिनदीक्षा धारण कर ली ।
इसी बीच में वह विद्याधर उज्जैनी में जल्लादका कर्म करने लगा । यशोधर तथा चन्द्रमती उसी नगर के समीप एक चाण्डाल बस्ती में मुर्गा-मुर्गी हुए थे । एक दिन उस जल्लादने, जो चण्ड़कमके नामसे प्रसिद्ध था, एक चण्डालपुत्र के हाथमें उन मुर्गा-मुर्गी को देखा । और उससे लेकर उन्हें यशोमतिकुमारको दिखलाया । राजा उस समय कामदेवकी पूजाके लिए जा रहा था । उसने चण्डकर्मासे कहा कि अभी तुम इन्हें अपने ही पास रखो। वहीं उद्यानमें इनका युद्ध देखा जायेगा ।
चण्डकर्मा पिंजरे के साथ उद्यान में पहुँचा । उसके साथ में शकुन शास्त्र में निष्णात आसुरि, भागवत ज्योतिषी, धूमध्वज नामक ब्राह्मण, भूगर्भवेत्ता हरप्रबोध और सुगतकोति नामक बौद्ध भी थे। उद्यानमें एक वृक्ष के नीचे आचार्य सुदत्त विराजमान थे । उन सबने आचार्य सुदत्तके सामने अपने-अपने मतोंका निरूपण किया, किन्तु आचार्यने उन सभीके सिद्धान्तोंका खण्डन करते हुए अहिंसाको हो धर्मका मूल बतलाया । अपने पक्ष के समर्थनमें उन्होंने उस मुर्गा-मुर्गी के पूर्वभवों का वर्णन करते हुए राजा यशोधर और चन्द्रमतीके उस कृत्यकी चर्चा की, जिसके कारण उन्हें वे कष्ट भोगने पड़े । आचार्य सुदत्तके मुखसे अपने पूर्वभवों की बात सुनकर मुर्गा-मुर्गी को भी अपने पूर्वकृत्योंपर बड़ा पश्चात्ताप हुआ और दोनोंने अपने मनमें व्रत धारण किये। दोनों एक पटमण्डप में आनन्दसे कूज रहे थे। इतनेमें यशोमतिकुमारने अपनी रानीको शब्दवेध में अपनी कुशलता दिखलाने के लिए बाण छोड़ा। उस बाणसे आहत होकर मुर्गा-मुर्गी दोनों मर गये । व्रतके प्रभाव से अगले जन्म में दोनों मनुष्ययोनिको प्राप्त हुए और यशोमतिकुमारकी रानी कुसुमावलीके गर्भसे यमज भाई-बहन के रूपमें उत्पन्न हुए । उनका नाम यशस्तिलक और मदनमती रखा गया था, किन्तु वे अभयरुचि और अभयमतीके नामसे प्रसिद्ध हुए, क्योंकि उनके गर्भ में आनेके दिनसे ही उनकी माताका भाव सब प्राणियोंको अभयदान देनेका हो गया था ।
एक दिन राजा यशोमति शिकार खेलनेके लिए गया । और उसने सहस्रकूट जिनालय के उद्यानमें सुदत्ताचार्यको देखा । राजाके एक साथीने कहा कि राजन्, इस मुनिके दर्शनसे आज शिकार में सफलता मिलना दुष्कर है। यह सुनकर राजाको क्षोभ हुआ । तब मुनिके दर्शनार्थ आया हुआ कल्याणमित्र बोला, राजन् ! असमय में यह मुखपर क्रोधके चिह्न क्यों ? राजाका साथी बोला, इस अमंगलस्वरूप नंगे साधुको जो देख लिया । कल्याणमित्रने कहा, राजन् ! ऐसा मत सोचो! यह महात्मा एक समय कलिंगदेश के राजा थे । तुम्हारे पिता से इनका वंशानुगत सम्बन्ध था । इन्होंने स्वयं प्राप्त लक्ष्मीको चंचल जानकर छोड़ दिया । अतः इनकी अवज्ञा करना उचित नहीं है । तब यशोमतिकुमारने कल्याणमित्र के साथ मुनिराजको नमस्कार किया और मुनिराजने उन्हें शुभाशीर्वाद दिया ।
इससे यशोमतिकुमारको अपनी दुर्भावनापर बड़ा पश्चात्ताप हुआ और उसके मन में यह विचार आया कि मुझे अपने दुष्कृत्यके प्रायश्चित्त रूपमें अपना सिर काटकर इनके चरणों में चढ़ाना चाहिए। मुनि महाराजने