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उपासकाध्ययन
चण्डमारी देवीके सामने आटेके बने मर्गेको राजा यशोधरने उसी विधिसे काटा जिस विधिसे जीवित मुर्गा काटा जाता है और उसे मांसके रूपमें पकाकर खाया भी।
दूसरे दिन अमृतमतोके महलमें राजा यशोधर, माता चन्द्रमती, पुत्र यशोमतिकुमार तथा पुत्रवधूका भोजन हुआ। अमतमतीने अपने पति तथा सासके भोजन में विष मिला दिया। भोजन करनेके बाद दोनोंका प्राणान्त हो गया। [चतुर्थ आश्वास]
मुनिकुमार कहता गया, हिमालयसे दक्षिणमें सुवेला नामका पर्वत है। उस पर्वतकी उपत्यकामें एक वृक्ष है । यशोधर मरकर उस वृक्षपर मयूरकुलमें उत्पन्न हुआ। उसे एक शिकारीने पकड़कर राजा यशोमतिकुमारको भेंट कर दिया। राजमहलको देखते ही मयूरको अपने पूर्व-जन्मका स्मरण हो आया।
उधर राजमाता चन्द्रमती मरकर विन्ध्याचलके दक्षिणमें स्थित करहाट देशमें कुत्ता हुई। संयोगवश उसके स्वामीने वह कुत्ता भी यशोमतिकुमारको भेंट कर दिया।
एक दिन मयूर राजमहलके सातवें खण्डपर जा पहुँचा और उसने अपने पूर्वभवकी पत्नी रानी अमतमतीको कुबड़ेके साथ रतिसुख में निमग्न देखा। देखते ही मयूर क्रोधसे उन्मत्त हो गया और अपनी चोंच, पंख वगैरहसे उसने दोनोंपर प्रहार किया । दासियोंने यह देखकर शोर मचाया और जो कुछ भी उनके हाथमें आया, उसीसे मयरको मारने लगीं। शोर सुनकर वह कुत्ता भी दौड़ा और उसने मयूरको मार डाला। यशोमतिकुमारने, जो निकट ही थे, कुत्तेको मयूरपर प्रहार करते हुए देखा और एक लकड़ीका टुकड़ा फेंककर मारा, उससे वह कुत्ता भी मर गया।
मयूर मरकर से ही हआ और कुत्ता मरकर सर्प हआ। एक दिन भूखा सेहो सर्पको खा गया. उस समय उसके मुखकी आवाजसे पासमें ही सोया हुआ लकड़बग्घा जाग गया और उसने सेहोको मार डाला।
उसके पश्चात् यशोधरका जीव सिप्रा नदीमें मच्छ हुआ और चन्द्रमतीका जीव उसी नदीमें मगर हुआ। एक दिन ज्येष्ठ मासमें सिप्रामें उज्जैनीको नारियां क्रीडा कर रही थीं। मगरने उनमें से एक स्त्रीको पकड़ लिया जो राजा यशोमतिकुमारकी रानी कुसुमावलीको दासी थी। यह सुनते ही क्रुद्ध राजाने धोवरोंको समस्त दुष्ट जल-जन्तुओंको मार डालनेका आदेश दिया। धीवरोंने उस मगरके साथ मच्छको भी पकड़ लिया और राजाके सम्मुख उपस्थित किया। राजाने अपने पितरोंके सन्तर्पणके लिए दोनोंको भोजनशालामें भिजवा दिया। इस तरह उन दोनोंका अन्त हुआ।
पुनः वे दोनों उज्जैनीके निकट कंकाहि नामक ग्राम में भेंडोंके झुण्डमें बकरा-बकरी हुए। एक दिन यशोधरका जीव बकरा अपनी माता चन्द्रमतीके जीव बकरीके साथ रमण कर रहा था। उसी समय मेषोंके झण्डके स्वामीने अपने ही तीक्ष्ण सींगोंसे बकरके मर्मस्थानमें आघात किया। उस आघातसे वह मर गया और उसी बकरीके गर्भ में आया।
एक दिन यशोमतिकमार शिकार खेलने के लिए वनमें गया। किन्तु कोई शिकार उसके हाथ नहीं लगा। निराश और क्रुद्ध होकर वह वनसे लौटा। मार्गमें भेंडोंके झुण्डमें-से जाते हुए उसने उस बकरीपर बाणसे प्रहार किया और उसका पेट फाड़ डाला। उसमें से एक बच्चा निकला । उसे उसने अपने रसोइयेको सौंप दिया।
उधर वह बकरी मरकर कलिंग देशमें एक भैंसे के रूपमें उत्पन्न हुई। उस भैसेको एक व्यापारीने खरीद लिया। एक बार वह उज्जैनी आ गया। एक दिन वह बलशाली भैसा सिप्रा नदीमें तैर रहा था। वहाँ उसको मुठभेड़ यशोमतिकुमारके एक अश्वसे हो गयी। भैंसेने घोड़ेपर सांघातिक प्रहार किया। फलस्वरूप राजाके आदेशसे सेवकोंके द्वारा वह भैंसा घोर यन्त्रणा देकर मार डाला गया। मांसको प्रेमी अमतमतीने उस बकरेको भी पकवाकर खा डाला। इस तरह भैसा और बकरेका प्राणान्त हुआ। अगले जन्ममें दोनों मुर्गा-मुर्गो हए।
मन्मथमथन नामके एक मुनिराज विजयाध पर्वतपर ध्यानमें लीन थे। कन्दलविलास नामका एक विद्याधर आकाशमार्गसे उधरसे निकला। मुनिराजके तपके माहात्म्यसे उसका विमान रुक गया। उसने क्रुद्ध