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विषयसूची
४३वाँ कल्प दानका स्वरूप, दानमें विशेषताका कारण, दाता, पात्र, विधि और द्रव्यका स्वरूप, सज्जनोंके धनव्ययके तीन प्रकार, दानके चार भेद, चारों दानोंका फल, सबसे प्रथम अभयदान देना चाहिए, अभयदानकी प्रशंसा, नवधा भक्ति, दाताके सात गुण, दाताके विज्ञान गुणका लक्षण, साधुके भोजनके अयोग्य घर, गृहस्थको स्वयं धर्म-कर्म करना चाहिए, स्वयं धर्म करने का फल, जिनदीक्षा तथा आहारदानके योग्य वर्ण, यज्ञपञ्चक करना चाहिए, कलिकालमें जिनरूपधारियोंके दर्शन दुर्लभ, वर्तमान मुनियोंको पूर्वकालीन मुनियोंकी छाया मानकर पूजना चाहिए, पात्रके तीन भेद, अपात्रका लक्षण, अपात्रको दान देना व्यर्थ, पात्रदानसे पुण्य, मिथ्यादृष्टिको केवल करुणाबुद्धिसे ही कुछ देना चाहिए, शाक्य नास्तिक आदिके साथ सम्बन्ध नहीं रखना चाहिए, अन्य प्रकारसे पात्रके पांच भेद, दान देनेका विधान, समयीका लक्षण, साधकका लक्षण, साधु, सूरि और समयदीपकका लक्षण तथा उन्हें दान देने की प्रेरणा, ज्ञान और तप मान्य हैं, योगियोंका अभिवादन करनेकी विधि, गुरुके निकटमें त्यागने योग्य व्यवहार, भोजनदानके लिए मुनिको परीक्षा करनेका निषेध, गुणोंके अनुसार मुनिको पूज्यता, साधर्मी के लिए धन खर्च करना चाहिए, जैनधर्म अनेक पुरुषोंके आश्रित है, मुनियोंके नामादिनिक्षेपकी अपेक्षा चार भेद, नामादिनिक्षेपोंका लक्षण, राजस और तामस. दानका लक्षण, सात्त्विकदानका लक्षण, उत्तम मध्यम जघन्य दान, भक्तिपूर्वक शाकपिण्डका दान भी पुण्यका कारण, भोजनादिके समय मौन पालनेका आदेश, मौनव्रत पालनेका लाभ, रोगी मुनियोंको परिचर्याका विधान, श्रुतके पाठकों और व्याख्याताओंको पुस्तकादि देना चाहिए, उनके अभावमें श्रुतका विच्छेद हो जायेगा, मुनियोंको श्रुतज्ञानी बनाना चाहिए, श्रुतका माहात्म्य, ज्ञानको दुर्लभता, महत्ता,
प्रत्येक शास्त्रमें स्वरूपरचना, शुद्धि, अलंकार और अर्थ रहते हैं, स्वरूप आदिके दो दो भेद, मुनि दानके अतिचार, मुनिको नमस्कार आदि करनेसे लाभ
२९३-३१३ ४४वाँ कल्प ग्यारह प्रतिमाओंके नाम धारण करनेवालोंमें । संज्ञाभेद; जितेन्द्रिय, क्षपण, श्रमण, आशाम्बर, नग्न, ऋषि, मुनि, यति, अनगार, शुचि, निर्मम, मुमुक्षु, शंसितव्रत, मौनी, अनूचान, अनाश्वान्, योगी, पञ्चाग्निसाधक, ब्रह्मचारी, गृहस्थ, वानप्रस्थ, शिखाच्छेदि, परमहंस, तपस्वी, अतिथि, दीक्षितात्मा, श्रोत्रिय, होता, यष्टा, अध्वर्यु, वेद, त्रयो, ब्राह्मणको निरुक्ति, धर्मसे युक्त जाति श्रेष्ठ है, शैव, बोद्ध, सांख्य और द्विजका स्वरूप, दानके अयोग्य व्यक्ति, भिक्षाके चार भेद
३१४-३२१ ४५वाँ कल्प शरीरको स्वयं विनाशोन्मुख जानकर समाधिविधि करना चाहिए, शरीरको त्यागना कठिन नहीं है, कठिन है संयमको धारण करना, समाधिका समय शरीर स्वयं बतला देता है, बुढ़ापा आ जानेपर जीवनकी तृष्णा व्यर्थ है, समाधिमरणकी विधि, यदि अन्त समय मन मलिन हो गया तो जीवन-भरका धर्माराधन व्यर्थ है, क्रमसे भोजन, दूध तथा गरम जलको छोड़े, अचानक मृत्यु आनेपर यह क्रम नहीं, आचार्य वगैरह कुशल हों तो समाधि में कठिनता नहीं होती। सल्लेखनाको हानि पहुँचानेवाले पांच कार्य ३२१-३२५ ४६वाँ कल्प 'प्रकीर्णक' शब्दकी व्याख्या, धर्मकथा करनेवालेके गुण, तत्त्वको समझने में प्रतिबन्धक बातें, आठ मद, मदावेशमें साधर्मीका अपमान करनेवाला धर्मघाती है, गृहस्थके षट्कर्म, देवपूजाकी छह क्रियाएँ, कल्याणकी प्राप्तिके साधन, गुरुके निकट न करने योग्य क्रियाएं, स्वाध्यायका स्वरूप, प्रथमानुयोग, करणानुयोग, चरणानुयोग द्रव्यानुयोगका स्वरूप, गतियोंमें