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________________ [ ६४ ] अर्थ - भव्य जीवों से नमस्कार करने योग्य हे मुनि ! शरीर और श्राहारादि का त्याग करने वाला मधुपिंग नामक मुनि केवल निदान के कारण श्रमरण पने (भावमुनिपने) को प्राप्त नहीं हुआ || ४५|| गाथा - अण्णं च वसिट्ठमुखी पत्तो दुक्खं शियाण दोसे | सोणत्थि वासठाणो जत्था दुरुदुल्लियो जीवो ॥ ४६ ॥ छाया - अन्यच्च वसिष्ठमुनिः प्राप्तः दुःखं निदानमात्रेण । तन्नास्ति वासस्थानं यत्र न भ्रान्तः जीव ! ॥ ४६ ॥ अर्थ - और भी एक वसिष्ठ नामक मुनि ने निदान के दोष से बहुत दुःख पाया । हे जीव ! लोक में ऐसा कोई निवास स्थान नहीं है, जहां तूने जन्म मरण के द्वारा भ्रमण नहीं किया । गाथा सोत्थितं परसो चउरासीलक्खजोणिवासम्मि | भावविर विसवणो जत्थ ग दुरुदुल्लियो जीवो ॥ ४७ ॥ छाया - स नास्ति त्वं प्रदेशः चतुरशीतिलक्षयो निवासे । भावविरतोऽपि श्रमणः यत्र न भ्रान्तः जीव ! ।। ४७ ।। - अर्थ - हे जीव ! इस संसार में चौरासी लाख योनि के स्थानों में ऐसा कोई स्थान नहीं है जहां तूने आत्मानुभवरूप भावों के बिना द्रव्यलिंगी मुनि होकर भी भ्रमण नहीं किया । गाथा - भावेण होइ लिंगी राहु लिंगी होइ दव्वमित्तेण । तम्हा कुणिज्ज भावं किं कीरइ दव्वलिंगेण ॥ ४८ ॥ छाया - भावेन भवति लिंगी नहि लिंगी भवति द्रव्यमात्रेण । तस्मात् कुर्याः भावं किं क्रियते द्रव्यलिंगेन ॥ ४८ ॥ अर्थ - भावलिंग से ही जिनलिंगी मुनि होता है तथा केवल द्रव्यलिग से जिनलिंगी नहीं होता । इस लिए भावलिंग को ही धारण करो, क्योंकि द्रव्यलिंग से 1 मुक्ति आदि क्या कार्य सिद्ध हो सकता है ॥ ४८ ॥ गाथा - दंडयणयरं सयलं डहिश्रो अब्भंतरेण दोसेख । जिणलिंगेण वि बाहू पडिश्रो सो रउरवे गरये ॥
SR No.022411
Book TitleAshtpahud
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParasdas Jain
PublisherBharatvarshiya Anathrakshak Jain Society
Publication Year1943
Total Pages178
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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