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________________ गाथा-मंसट्ठिसुक्कसोणियपित्तंतसक्तकुणिमदुग्गंधं । ___खरिसवसपूयखिब्भिसभरियं चिंतेहि देहउडं ॥४२॥ छाया-मांसास्थिशुक्रश्रोणितपित्तांत्रस्रवत्कुणिमदुर्गन्धम् । . खरिसवसापूयकिल्बिषभरितं चिन्तय देहकुटम् ॥४२॥ अर्थ-हे मुनि ! तू इस शरीर रूपी घड़े का स्वरूप विचार, जो मांस, हड्डी, वीर्य, रुधिर, पित्त, आंत से झरती हुई, मुर्दे के समान दुर्गन्ध सहित है तथा अपक्व मल सहित बलगम, चर्बी और पीप आदि अपवित्र वस्तुओं से भरा हुआ है ॥४२॥ गाथा-भावविमुत्तो मुत्तो णय मुत्तो बंधवाइमित्तेण । इय भाविऊण उज्मसु गंधं अभंतरं धीर ।।४३॥ छाया-भावविमुक्तः मुक्तः न च मुक्तः बान्धवादिमित्रेण । इति भावयित्वा उज्झय गन्धमाभ्यन्तरं धीर !॥४३॥ अर्थ-जो मुनि रागादिभावों से मुक्त ( रहित ) है वही वास्तव में मुक्त है, किन्तु जो बाह्य बान्धवादि कुटुम्ब से ही मुक्त है वह मुक्त नहीं कहलाता है। ऐसा विचार कर हे धीर मुनि ! तू अन्तरंग स्नेहरूप वासना का त्याग कर ॥४३॥ गाथा- देहादिचत्तसंगो माणकसाएण कलुसिओ धीर! अत्तावणेण जादो बाहुवली कित्तियं कालं ॥४४॥ छाया- देहादित्यक्तसंगः मानकषायेन कलुषितो धीर ! आतापनेन जातः वाहुबलिः कियन्तं कालम् ॥४४॥ अर्थ--हे धीर मुनि ! देहादि प्ररिग्रह से ममत्व छोड़ने वाले बाहुबलि स्वामी ने मानकषाय से मलिनचित्त होकर कायोत्सर्ग ( खड़े होकर ध्यान करना) के द्वारा कितना समय व्यतीत किया, किन्तु सिद्धि प्राप्त नहीं हुई। जब कषाय की मलिनता दूर हुई तब ही उनको केवलज्ञान प्राप्त हुआ ॥४४॥ गाथा-महुपिंगो णाम मुणी देहाहारादिचत्तवावारो। सवणत्तणं णपत्तो णियाणमित्तेणभवियणुय ॥४॥ छाया-मधुपिंगो नाम मुनिः देहाहारादित्यक्तव्यापारः । श्रमणत्वं न प्राप्तः निदानमात्रेण भव्यनुत !॥४॥
SR No.022411
Book TitleAshtpahud
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParasdas Jain
PublisherBharatvarshiya Anathrakshak Jain Society
Publication Year1943
Total Pages178
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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