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________________ [ ४१.] गाथा-दंसण अणंत णाणे मोक्खो णट्ठट्टकम्मबंधेण । णिरूवमगुणमारूढो अरहंतो एरिसो होई ॥२६॥ छाया-दर्शन अनन्तं ज्ञानं मोक्षः नष्टाष्टकर्मबन्धेन।। निरूपमगुणमारूढः अर्हन ईदृशो भवति ॥२६॥ अर्थ-जिसके दर्शन और ज्ञान अनन्त हैं, स्थितिबन्ध और अनुभाग बन्ध की अपेक्षा आठों कर्मों का बन्ध नष्ट होने से भावमोक्ष प्राप्त हो गया है तथा उपमा रहित [ बेमिसाल ] गुणों को धारण करता है, ऐसा शुद्ध आत्मा नाम अर्हन्त कहलाता है ॥२६॥ गाथा-जरवाहिजम्ममरणं चउगइगमणं च पुण्ण पावं च । ____ हतूण दोसकम्मे हुउ णाणमयं च अरहंतो ॥३०॥ छाया-जराव्याधिजन्ममरणं चतुर्गतिगमनं च पुण्यं पापं च । हत्वा दोषकर्माणि भूतः ज्ञानमयश्चाहन् ॥३०॥ अर्थ-जो बुढ़ापा, रोग, जन्म, मरण, चारों गतियों में गमन, पुण्य और पाप प्रकृतियों का उदय तथा रागद्वेषादि दोषों को नाश करके केवल ज्ञान को प्राप्त करता है वह सर्वज्ञ वीतराग नाम अर्हन्त कहलाता है ॥३०॥ गाथा-गुणठाणमग्गणेहिंय पज्जत्तीपाणजीवठाणे हिं । ___ठावण पंचविहेहिं पणयव्वा अरहपुरिसस्स ॥ ३१ ॥ छाया- गुणस्थानमार्गणभिः च पर्याप्तिप्राणजीवस्थानैः । स्थापना पंचविधैः प्रणेतव्या अर्हत्पुरुषस्य ॥३१॥ अर्थ-गुणस्थान, मार्गणा, पर्याप्ति, प्राण और जीवसमास इस तरह ५ प्रकार से अहंन्त पुरुष की स्थापना करनी चाहिये ॥ ३१ ॥ गाथा- तेरहमे गुणठाणे सजोइकेवलिय होइ अरहंतो । चउतीस अइसयगुणा होति हु तस्सट्ठ पडिहारा ॥ ३२॥ छाया- त्रयोदशे गुणस्थाने सयोगकेवलिकः भवति अर्हन् । चतुस्त्रिंशत् अतिशयगुणा भवन्ति स्फुटं तस्याष्टप्रातिहार्याणि ॥३२ ।।
SR No.022411
Book TitleAshtpahud
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParasdas Jain
PublisherBharatvarshiya Anathrakshak Jain Society
Publication Year1943
Total Pages178
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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