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[ ४० ] अर्थ-जो दया से पवित्र है वह धर्म है और जो सब परिग्रहों से रहित है वह
दीक्षा है तथा जो मोह रहित और भव्य जीवों की उन्नति करने वाला है वह देव है ॥२५॥
गाथा-वयसम्मत्त विसुद्ध पंचेंदियसंजदे णिरावेक्खे ।
रहाऊण मुणी तित्थे दिक्खासिक्खामुण्हाणेण ॥२६॥ छाया-व्रतसम्यक्स्वविशुद्ध पंचेन्द्रियसंयते निरापेक्षे।
स्नातु मुनिः तीर्थे दीक्षा शिक्षासुरनानेन ॥२६॥ अर्थ-जो पांच महाव्रत और सम्यग्दर्शन से पवित्र है पांच इन्द्रियों को जीतने
वाला है और इस लोक तथा परलोक के भोगों की इच्छा से रहित है ऐसे आत्मा रूप तीर्थ में मुनि को दीक्षा और शिक्षा रूप स्नान के द्वारा पवित्र होना चाहिये ॥२६॥
गाथा-जं णिम्मलं सुधम्म सम्मत्तं संजमं तवं णाणं ।
तं तित्थं जिणमग्गे हवेइ जदि संतभावेण ॥२७॥ छाया-यत् निर्मलं सुधर्म सम्यक्त्वं संयमं तपः ज्ञानम् ।
__ तत् तीर्थ जिनमार्गे भवति यदि शान्तभावेन ॥२७॥ अर्थ-यदि शान्तभाव से निर्मल (दोष रहित ) उत्तम क्षमादि धर्म, सम्यग्दर्शन,
संयम, तप और ज्ञान आदि गुणों को धारण किया जाय तो इनको जैन दर्शन में असली तीर्थ बताया गया है ॥२७॥
गाथा-णामे ठवणे हि य संदव्वे भावे हि सगुणपज्जाया।
. चउणागदि संपदिमे भावा भावंति अरहतं ॥२८॥ छाया-नाम्नि संस्थापनायां हि च सद्रव्ये भावे हि सगुणपर्यायाः।
च्यवनमागतिः संपत् इमे भावा भावयन्ति अर्हन्तम् ॥२८॥ अर्थ-नाम, स्थापना, द्रव्य, भाव इनसे गुण और पर्यायों के साथ अरहन्त जाने
जाते हैं तथा च्यवन (स्वर्ग नरकादि से अवतार लेना), आगति ( भरतादि क्षेत्रों में आना) सम्पत् ( रत्नवृष्टि आदि ) ये भाव अर्हन्तपने को जताते अर्थात् निश्चय कराते हैं ॥२८॥