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________________ [ २२ ] गाथा-वच्छल्लं विणएण य अणुकंपाएं सुदाणदच्छाए । मग्गणगुणसंसणाए उवगृहण रक्खणाए य ॥११।। एएहिं लक्खणेहिं य लक्खिज्जइ अजवेहिं भावेहिं । जीवो आराहतो जिणसम्मत्तं अमोहेण ॥१२॥ छाया-बात्सल्यं विनयेन च अनुकम्पया सुदानदक्षया । मागेगुणशंसनया उपगृहनं रक्षणेन च ॥११॥ एतैः लक्षणैः च लक्ष्यते आर्जवैः भावैः । जीवः आराधयन् जिनसम्यक्त्वं अमोहेन ॥१२॥ अर्थ-जिन भगवान् के श्रद्धानरूप सम्यक्त्व को मोह रहित धारण करता हुआ सम्यग्दृष्टी जीव वात्सल्य, विनय, दान करने योग्य करुणा, मोक्षमार्ग की प्रशंसा, उपगृहन, स्थितिकरण और आर्जवभाव इन चिन्हों से जाना जाता है ॥११-१२॥ गाथा-उच्छाहभावणासंपसंससेवा कुदंसणे सद्धा। अण्णाणमोहमग्गे कुव्वंतो जहदि जिणसम्म ॥१३॥ छाया-उत्साहभावनासंप्रशंसासेवाः कुदर्शने श्रद्धा। अज्ञानमोहमार्गे कुर्वन् जहाति जिनसम्यक्म् ॥१३॥ अर्थ-अज्ञान और मिथ्यात्व के मार्गरूप मिथ्यामत में उत्साह, भावना, प्रशंसा सेवा और श्रद्धान करता हुआ पुरुष जिन धर्म के श्रद्धानरूप सम्यग्दर्शन को छोड़ देता है ॥१३॥ गाथा-उच्छाहभावणासंपसंससेवा सुदंसणे सद्धा। ण जहदि जिणसम्मत्त कुव्वंतो णाणमग्गेण ॥१४॥ छाया-उत्साहभावनासंप्रशंसासेवाः सुदर्शने श्रद्धा। न जहाति जिनसम्यक्त्वं कुर्वन् ज्ञानमार्गेण ॥१४॥ अर्थ-समीचीन मार्ग में ज्ञानमार्ग के द्वारा उत्साह, भावना, प्रशंसा, सेवा और श्रद्धान करता हुआ पुरुष जिनमत के श्रद्धानरूप सम्यग्दर्शन को नहीं छोड़ता है॥१४॥
SR No.022411
Book TitleAshtpahud
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParasdas Jain
PublisherBharatvarshiya Anathrakshak Jain Society
Publication Year1943
Total Pages178
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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