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[ २१ ] अर्थ- निःशंकित, निःकांक्षित, निर्विचिकित्सा, अमूढदृष्टि, उपगूहन, स्थितीकरण,
वात्सल्य और प्रभावना ये सम्यग्दर्शन के ८ अङ्ग शंकादि दोषों के अभाव से प्रगट होते हैं ॥७॥
गाथा- तं चेव गुणविसुद्धं जिणसम्मत्तं सुमुक्खठाणाय ।
जं चरइ णाणजुत्तं पढमं सम्मत्तचरणचारित्तं ॥ ८ ॥ छाया- तश्चैव गुणविशुद्धं जिनसम्यक्त्वं सुमोक्षस्थानाय ।
यच्चरति ज्ञानयुक्त प्रथमं सम्यक्त्वचरणचारित्रम् ॥८॥ अर्थ-- वह जिन भगवान का श्रद्धान जब निःशंकितादि गुणों से विशुद्ध होता है
और यथार्थ ज्ञान के साथ आचरण किया जाता है, वह पहला सम्यक्त्व* चरेण चारित्र मोक्ष प्राप्ति का प्रधान उपाय है ॥८॥ .
गाथा-सम्मत्तचरणसुद्धा संजमचरणस्स जइ व सुपसिद्धा ।
____णाणी अमूढ दिठ्ठी अचिरे पावंति णिव्वाणं ।।। छाया-सम्यक्त्वचरणशुद्धाः संयमचरणस्य यदि वा सुप्रसिद्धाः ।
ज्ञानिनः अमूढदृष्टयः अचिरं प्राप्नुवन्ति निर्वाणम ॥६॥ अर्थ-जो ज्ञानी पुरुष मूढ़ता रहित होकर सम्यक्त्वचरण चारित्र से शुद्ध होते
हैं, यदि वे संयमचरण चारित्र से भलीभांति शुद्ध हों तो शीघ्र ही मोक्ष को प्राप्त होते हैं ।
गाथा-सम्मत्तचरणभट्ठा संजमचरणं चरंति जे विणरा।
अण्णाणणाणमूढा तहवि ण पावंति णिव्वाणं ॥१०॥ छाया-सम्यक्त्वचरणभ्रष्टाः संयमचरणं चरन्ति ये ऽपि नराः।
अज्ञानज्ञानमूढा तथापि न प्राप्नुवन्ति निर्वाणम् ॥१०॥ अर्थ-जो पुरुष सम्यक्त्वचरण चारित्र से भ्रष्ट हैं और संयम का आचरण
करते हैं, वे अज्ञान से मूढदृष्टि (मिथ्यादृष्टि) होते हैं, इसलिये मोक्ष नहीं पाते हैं ॥१०॥