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[ १७ ] गाथा-लिंगं इत्थीण हवदि भंजइ पिंडं सुएयकालम्मि।
अज्जिय वि एकवत्था बत्त्यावरणेण भुंजेइ ॥ २२ ॥ छाया- लिंगं स्त्रीणां भवति भुक्त पिण्डं स्वेककाले।
आर्यापि एकवस्त्रा वस्त्रावरणेन भुंक्ते ॥ २२ ॥ अर्थ--स्त्रियों का अर्थात् आर्यिकाओं का तीसरा भेष बताया गया है। वह दिन में
एक बार भोजन करती है। आर्यिका और क्षुल्लिका भी एक वस्त्र धारण करती है और वस्त्रसहित ही भोजन करती है ॥ २२ ॥
गाथा-णवि सिज्झइ वत्थधरो जिणसासणे जइवि होइ तित्थयरो।
णग्गो विमोक्खमग्गो सेसा उम्मग्गया सव्वे ॥२३॥ छाया-नापि सिध्यति वस्त्रधरः जिनशासने यद्यपि भवति तीर्थकरः ।
__नग्नः विमोक्षमार्गः शेषा उन्मार्गकाः सर्वे ॥ २३ ॥ अर्थ-जिन शासन में ऐसा कहा है कि यदि वस्त्र धारण करने वाला तीर्थंकर भी
हो, तो उसको गृहस्थ अवस्था से मुक्ति नहीं हो सकती। क्योंकि नग्नपना हो मोक्ष मार्ग है, बाकी सब लिंग मिथ्यामार्ग हैं ॥ २३ ॥
गाथा-लिंगम्मि य इत्थीणं थणंतरे णाहिकक्खदेसेसु ।
भणिओ सुहमो काओ तासिं कह होइ पव्वजा ॥२४॥ छाया-लिंगे च स्त्रीणां स्तनान्तरे नाभिकक्षदेशेषु ।
भणितः सूक्ष्मः कायः तासां कथं भवति प्रव्रज्या ॥२४॥ अर्थ-त्रियों के योनि, स्तन, नाभि, कांख आदि स्थानों में सूक्ष्म जीवों की उत्पत्ति
कही गई है। इसलिये उनके महाव्रतरूप दीक्षा कैसे हो सकती है। उनके तो उपचार से ही महाव्रत कहे गये हैं। ॥२४॥
गाथा- जइ दंसणेण सुद्धा उत्ता मग्गेण सावि संजुत्ता।
घोरं चरिय चरित्तं इत्थीसुण पावया भणिया ॥ २५ ॥ छाया- यदि दर्शनेन शुद्धा उक्ता मार्गेण सापि संयुक्ता ।
घोरं चरित्वा चरित्रं स्त्रीषु न पापका भणिता ॥ २५ ॥