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________________ _ [१६] छाया-ज्ञानेन दर्शनेन च तपसा चारित्रेण सम्यक्त्वसहितेन । भविष्यति परिनिर्वाणं जीवानां चारित्रशुद्धानाम् ॥ ११ ॥ अर्थ-जब सम्यक्त्व के साथ ज्ञान दर्शन और तपरूप आचरण होता है तब शुद्ध चारित्र वाले जीवों को पूर्ण मोक्ष प्राप्त होता है ॥ ११ ॥ गाथा-सीलं रक्खताणं दसणसुद्धाणं दिढचरित्ताणं। अत्थि धुवं रिणव्वाणं विसएसु विरत्तचित्ताणं ॥ १२ ॥ छाया-शीलं रक्षतां दर्शनशुद्धानां दृढ़चारित्राणाम्। अस्ति ध्रुवं निर्वाणं विषयेषु विरक्तचित्तानाम् ।। १२ ।। अर्थ-इन्द्रियों के विषयों से विरक्त रहने वाले, शील की रक्षा करने वाले, सम्यग्दर्शन से पवित्र और दृढ़ अर्थात् अतीचार रहित चारित्र को पालने वाले पुरुषों को निश्चय से मोक्ष पद प्राप्त होता है ।। १२ ।। गाथा-विसएसु मोहिदाणं कहियं मग्गं पि इदरिसीणं । उम्मग्गं दरिसीणं णाणं पि णिरत्थयं तेसिं ॥ १३ ॥ छाया-विषयेषु मोहितानां कथितो मार्गो ऽपि इष्टदर्शिनाम् । उन्मार्ग दर्शिनां ज्ञानमपि निरर्थकं तेषाम् ॥ १३ ॥ अर्थ-इन्द्रियों के विषयों में आसक्त रहने पर भी जीवों को इष्ट मार्ग अर्थात् विषयों से विरत रहने का सच्चा मार्ग दिखाने वाले पुरुषों को तो सच्चा मार्ग प्राप्त हो सकता है। किन्तु जीवों को खोटा मार्ग दिखाने वाले मनुष्यों का ज्ञान प्राप्त करना भी व्यर्थ है ।। १३८ गाथा-कुमयकुसुदपसंसा जाणंता बहुविहाई सत्थाई। सीलवदणाणरहिदा ण हु ते आराधया होति ॥ १४ ॥ छाया-कुमतकुश्रुतप्रशंसकाः जानन्तो बहुविधानि शास्त्राणि। . _____ शीलबतज्ञानरहिता न स्फुटं ते आराधकाः भवन्ति ।। १४ ॥ अर्थ-बहुत प्रकार के शास्त्रों को जानने वाले जो पुरुष खोटे धर्म और खोटे शास्त्र की प्रशंसा करते हैं, वे शील, व्रत और ज्ञान रहित हैं इसलिये निश्चय से वे इन गुणों के आराधक नहीं होते हैं ॥ १४ ॥
SR No.022411
Book TitleAshtpahud
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParasdas Jain
PublisherBharatvarshiya Anathrakshak Jain Society
Publication Year1943
Total Pages178
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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