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रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् - अनादि कर्मसम्बन्धसे यह आत्मा अशुद्धभावसे परिणमै है. इस कारण सादिसान्त सादिअनन्तभाव होता है. जैसें कीचसे मिला हुवा जल अशुद्ध होता है. उस कीचके मिलाप होने न होनेकर शुद्धअशुद्ध जल कहा जाता है. तैसें ही इस आत्माके कर्म सम्बन्ध होने न होनेके कारण सादिसान्त सादिअनन्त भाव कहे जाते हैं [च] और [पञ्चाग्र गुणप्रधानाः] औदयिक, औपसमिक, क्षायोपशमिक, क्षायिक, और पारिणामिक इन पांच भावोंकी प्रधानतालिये प्रवर्ते है।
आगें जीवोंके पांच भावोंसे यद्यपि सादिसान्त अनादि अनन्त भाव हैं तथापि द्रव्यार्थिक पर्यायार्थिक नयसे विरोध नहीं है ऐसा कथन करते हैं।
एवं सदो विणासो असदो जीवस्स होइ उप्पादो। इदि जिणवरेहिं भणिदं अण्णोण्ण विरुद्धमविरुद्धं ॥ ५४॥
संस्कृतछाया. एवं सतो विनाशोऽसतो जीवस्य भवत्युत्पादः ।
इति जिनवरैर्भणितमन्योऽन्यविरुद्धमविरुद्धम् ॥ ५४ ॥ पदार्थ-[एवं] इस पूर्वोक्त प्रकारके भावोंसे परिणये जो जीव हैं उनके जब उत्पादव्ययकी अपेक्षा कीजे तब [सतः] विद्यमान जो मनुष्यादिकपर्याय उसका तो [विनाशः] विनाश होना और [ असतः] अविद्यमान [जीवस्य ] जीवका [उत्पादः] देवादिकपर्यायकी उत्पत्ति [ भवति] होती है [इति जिनवरैः] इस प्रकार जिनेन्द्र भगवानकेद्वारा [अन्योऽन्यविरुद्धं ] यद्यपि परस्परविरुद्ध है तथापि [अविरुद्धं] विरोधरहित [भणितं] कहा गया है।
भावार्थ-भगवानके मतमें दो नय हैं. एक द्रव्यार्थिक नय-दूसरा पर्यायार्थिक नय है । द्रव्यार्थिक नयसे वस्तुका न तो उत्पाद है. और न नाश है । और पर्यायार्थिक नयसे नाश भी है और उत्पाद भी है । जैसें कि जल नित्य अनित्यस्वरूप है. द्रव्यकी अपेक्षा तो जल नित्य है और कल्लोलोंकी अपेक्षा उपजना विनशना होनेके कारण अनित्य है. इसी प्रकार द्रव्य नित्यअनित्यस्वरूप कथंचित्प्रकारसे जान लेना । आगें जीवके उत्पादव्ययका कारण कर्मउपाधि दिखाते हैं ।
रइयतिरियमणुआ देवा इदि णामसंजुदा पयडी। ___कुव्वंति सदो णासं असदो भावस्स उप्पादं ॥ ५५ ॥
संस्कृतछाया. नारकतिर्यङमनुष्या देवा इति नामसंयुताः प्रकृतयः । कुर्वन्ति सतो नाशमसतो भावस्योत्पादं ॥ ५५ ॥