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( ६४ ) वाले ज्ञानों में विलक्षणता उपपन्न हो जायगी, फिर ज्ञानाकार की कल्पना का कोई आधार ही न रह जायगा। अतः यदि ज्ञान की साकारता है तो बाह्य अर्थों का अस्तित्व नहीं और यदि उसका अस्तित्व है तो ज्ञान की साकारता नहीं । ऐसी स्थिति में यह कैसे कहा जा सकता है कि ज्ञानाका रगोचर प्रवृत्ति से बाह्य अर्थ की प्राप्ति होती है। इस लिये यह मत ठीक नहीं है कि जलत्व भावभूत स्थायी धर्म नहीं है किन्तु क्षणिक ज्ञानाकाररूप है।
त्वच्छासने स्फुरति यत्स्वरसादलीका
दाकारतश्च परतोऽनुगतं तु बाह्यम् । आमम्बनं भवति सङ्कलनात्मकस्य
तत्तस्य न त्वतिविभिन्नपदार्थयोगात् ॥ २३॥ अलीक और ज्ञानाकार से भिन्न घट, पट आदि जितनी भी बाह्य वस्तुयें हैं वे हे भगवन् ? तुम्हारे शासन में अतिरिक्त अनुगमक-एकरूपता का सम्पादक, और व्यावर्तक-भेदक धर्म के विना ही अनुगत और व्यावृत्त हैं, उनकी अनुगतता-एकरूपता और व्यावृत्तता-भिन्नता स्वारसिक अर्थात् स्वाभाविक है।
एवं वे वस्तुयें जिस प्रत्यभिज्ञानामक ज्ञान में स्फुरित होती हैं वह भी न्यायशास्त्र के अनुसार केवल प्रत्यक्षरूप न होकर सङ्कलनरूप है, और उस ज्ञान में उन वस्तुओं का जो स्फुरण होता है वह भी इस लिये नहीं कि वे अपने से अत्यन्त भिन्न, स्थायी, और अनुगत घटत्व आदि धर्मों से युक्त हैं, बल्कि इस लिये कि वे स्वभावतः अनुगत अर्थात् एकरूप हैं।
तद्भिन्नतामनुभवस्मरणोद्भवत्वाद्
द्रव्यार्थिकाश्रयतयेन्द्रियजा बिभर्ति । भेदे स्फुरत्यपि हि यद् घटयेदभिन्नं
भेदं निमित्तमधिकृत्ब तदेव मानम् ॥ २४ ॥ सोऽयम्-यह प्रत्यभिज्ञानामक ज्ञान अयम्-इस अंश के अनुभव और सःइस अंश के स्मरण से उत्पन्न होने के कारण संस्कार-निरपेक्ष इन्द्रिय से उत्पन्न होने वाले प्रत्यक्ष से भिन्न है, उसमें तत्ता और इदन्ता-इन विभिन्न विशेषणों का स्फुरण होने से यद्यपि उन विशेषणों के आश्रयों में भी भेद का स्फुरण होता है तो भी निमित्तभेद से अर्थात् द्रव्याथिक दृष्टिकोण से उन विशेषणों के आश्रयभूत विशुद्ध द्रव्यांश के अभेद का भी उसी ज्ञान में स्फुरण होता है । अतः यह स्पष्ट है कि प्रत्यभिज्ञानामक ज्ञान बिशेषणों की दृष्टि से भेद का और विशुद्ध विशेष्यों की दृष्टि के अभेद का प्रकाशन करता है।