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________________ पानी प्यास मिटाता है और अन्नादि भोजन-वस्तुयें भूख मिटाती हैं। इसलिये प्यास लगने पर वह पानी की ओर तथा भूख लगने पर भोज्य-वस्तु की ओर आकृष्ट होता है। परन्तु विश्व की क्षणिकता के पक्ष में सभी वस्तुयें आपस में अत्यन्त भिन्न हैं, विभिन्न देश-काल में स्थित जल और अन्नादि में एकान्त भेद है, एक भी स्थायी वस्तु न होने के कारण भिन्न मिन्न काल के जलादि वस्तुओं में समानता का प्रयोजक कोई धर्म नहीं है। तो प्यासे मनुष्य ने जिस पानी को पिया है या भूखे आदमी ने भोजन की जिस वस्तु को ग्रहण किया है, उस पानी और उस भोजनीय वस्तु से प्यास का बुझना और भूख का मिटना तो उसे ज्ञात है पर नये पानी और नई भोजनीय वस्तु की सामर्थ्य का तो उसे ज्ञान है नहीं अतः नये पानी और नये भोजन की ओर प्यासे या भूखे मनुष्य का झुकाव कैसे होगा ? इसलिये यह मानना नितान्त आवश्यक है कि देश-काल के भेद से भिन्नता होने पर भी जलादि वस्तुयें जलत्वादि नामक एक स्थायी धर्म से युक्त हैं। जब उन धर्मों के एक आश्रय में प्यास आदि दूर करने की सामर्थ्य दृष्ट हो जाती है तब उन धर्मों के अन्य आश्रयों में भी उन्हीं धर्मों से प्यास आदि मिटाने की सामर्थ्य का अनुमान करके प्यासा या भूखा मनुष्य उन नयी वस्तुओं की ओर आकृष्ट होता है । ___ इस प्रकार अवश्य मन्तव्य इन धर्मों में सत्ता आदि हेतुओं के क्षणिकता का व्यभिचारी हो जाने से उन हेतुओं से विश्वमात्र की क्षणिकता का साधन नहीं किया जा सकता। जलप्रतीति से प्रवृत्त हो जिसे पा और पीकर जिस मनुष्य ने एक बार अपनी पिपासा शान्त की है, दूसरी बार पुनः प्यास लगने पर वह मनुष्य वैसी ही वस्तु की खोज करता है, और फिर जहाँ उसे जलप्रतीति होती है वहाँ वैसी ही वस्तु पाकर अपनी कृतार्थता का सम्पादन करता है। इस व्यवहार की उत्पत्ति के लिये नैयायिक ने पूर्वपीत और पुनः पास्यमान द्रवद्रव्य 'जल' में एक अनुगत जलत्वनामक धर्म की कल्पना कर उस धर्म के आश्रयभूत वस्तुओं में पिपासा शान्त करने की सामर्थ्य स्वीकार की है, पर साकारज्ञानवादी इस कल्पना को आदर नहीं देते, उनका कहना यह है कि जितनी जल व्यक्तियाँ जगत् में हैं वे एक दूसरे से सर्वथा विलक्षण हैं, उनमें किसी धर्म के द्वारा समानता नहीं है, प्यासे पुरुषके कथित व्यवहार की उपपत्ति प्रकारान्तर से हो सकती है। जैसे जलाकार-प्रतीति से प्रवृत्त हो कर एक बार प्यास की शान्ति कर लेने पर पुनः जलाकार प्रतीति से प्यास शान्त करने की कामना वाले मनुष्य की प्रवृत्ति होती है । यह प्रवृत्ति जलव्यक्ति में न होकर जलप्रतीति में
SR No.022404
Book TitleJain Nyaya Khand Khadyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBadrinath Shukla
PublisherChowkhamba Sanskrit Series
Publication Year1966
Total Pages192
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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