________________
( ४२ ) सकता है क्योंकि इन व्यवहारों में किसी अप्रामाणिक वस्तु का होना नहीं बताया जाता किन्तु एक स्थान में स्थानान्तर-सिद्ध वस्तु का असम्बन्ध बताया जाता है। जैसे खरहे को सींग नहीं होती इस व्यवहार में प्रमाण-सिद्ध खरहे में पश्वन्तर के प्रमाणसिद्ध सींग के सम्बन्ध का निषेध बताया जाता है और 'खरहे की सींग में सौन्दर्य नहीं होता' इस व्यवहार में प्रमाणसिद्ध सींग में खरहा और सौन्दर्य के सम्बन्ध का अभाव बताया जाता है। अर्थात् इस वाक्य का भावार्थ यह है कि सींग में केवल सौन्दर्य का अस्तित्व हो सकता है पर खरहे का सम्बन्ध और सौन्दर्य इस उभय का अस्तित्व नहीं हो सकता। इस प्रकार निषेध-व्यवहार में किसी अप्रामाणिक वस्तु की चर्चा न होने के कारण वह मान्य हो सकता है, पर अप्रसिद्ध अर्थवाले शब्दों या वाक्यों का भाव-व्यवहार नहीं मान्य हो सकता ।
व्यवहार ज्ञानतन्त्र होता है यह बात तो मान्य है क्योंकि अज्ञात वस्तु को व्यवहारविषयता नहीं होती, पर व्यवहार प्रमाणतन्त्र है यह बात मानने योग्य नहीं है क्योंकि अप्रमित वस्तु को भी व्यवहारविषयता होती है, जैसे खरहे में, अप्रमित सींग के सम्बन्ध का 'खरहे को सींग होती है' इस प्रकार का अप्रामाणिक व्यवहार होता है। दूसरा कारण यह भी है कि व्यवहार के प्रति ज्ञान को ज्ञानत्वरूप से कारण मानने में लाघव है और प्रमाण को प्रमाणत्वप्रमात्व रूप से कारण मानने में गौरव है, इसलिये भी व्यवहार को ज्ञानतन्त्र ही मानना चाहिये, प्रमाणतन्त्र नहीं।
बौद्ध का यह कथन भी उचित नहीं है क्योंकि इस व्यवस्था के आधार पर भी असत्-सम्बन्धी व्यवहार का समर्थन नहीं हो सकता। कारण यह है कि असत् सम्बन्धी व्यवहार का उपपादन जिस असत्-गोचर ज्ञान के बल से किया जायगा उसे यथार्थ-ख्याति, अन्यथाख्याति या असत्-ख्याति के रूप में स्वीकार नहीं किया जा सकता। यथार्थख्याति अर्थ के विना नहीं होती अतः वह असत् में प्रवृत्त नहीं हो सकती। अन्यथाख्याति मानने में तो 'असत् ज्ञान का विषय नहीं होता' इस नैयायिकमत की ही विजय होगी क्योंकि अन्यथाख्याति के सभी विषय जैसे धर्मी, धर्म और सम्बन्ध सत् ही होते हैं। और असत्ख्याति तो सम्भव ही नहीं है क्योंकि ज्ञान के कारणों की सत् वस्तु के ही ज्ञान-सम्पादन में सामर्थ्य होती है, असत् के नहीं।
अतः असत्सम्बन्धी व्यवहार के दृष्टान्त से असत्पक्षादिमूलक अनुमान का उपपादन नहीं किया जा सकता।
आदाय सत्त्वमपि न क्रमयोगपद्ये
नित्यानिवृत्त्य बिभृतः क्षणिके प्रतिष्ठाम् ।