SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 47
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ( ३८ ) का अस्तित्व नहीं हो सकता । यदि सम्बन्ध-असम्बन्ध के विरोध का यह अर्थ हो तो यह भी ठीक नहीं, क्योंकि यह विरोध इस नियम के ऊपर निर्भर है कि दो सम्बन्धी वस्तुओं में एक की स्थिति दूसरी से दूर नहीं होती। परन्तु इस नियम में कोई प्रमाण नहीं है। इस नियम के विना उक्त विरोध की सिद्धि नहीं हो सकती इसलिये उक्त विरोध ही इस नियम का साधक होगा। क्योंकि यह सर्वसम्मत न्याय है कि जो जिसके बिना सिद्ध नहीं होता वह उसका साधक होता है। यह बात भी ग्रहण करने योग्य नहीं है। इसमें अन्योन्याश्रय दोष हो जाता है, क्योंकि उक्त नियम की सिद्धि में उक्त विरोध की और उक्त विरोध की सिद्धि में उक्त नियम की अपेक्षा पड़ जाती है। जो पहले जिससे असम्बद्ध होता है उसमें बाद में उसका सम्बन्ध एवं जो पहले जिससे सम्बद्ध होता है उसमें बाद में उसका असम्बन्ध नहीं हो सकता। यह शङ्का भी सम्मान्य नहीं हो सकती। क्योंकि सम्बन्ध और असम्बन्ध भिन्न भिन्न प्रयोजकों के अधीन हैं । जिन वस्तुओं के परस्पर-सम्बन्ध के कारण जब एकत्र होते हैं तब उनका परस्पर-सम्बन्ध होता है और जब वे एकत्र नहीं होते तब असम्बन्ध होता है। अतः एक व्यक्ति में एक ही वस्तु के सम्बन्ध और असम्बन्ध के होने में कोई विरोध नहीं है । वस्तु का नाश निर्हेतुक है, अतः वस्तु का जन्म हो जाने पर उसके नाश में बिलम्ब नहीं हो सकता। क्योंकि कारण के विलम्ब से ही कार्य की उत्पत्ति में विलम्ब होता है । फिर जब नाश को कारण की अपेक्षा नहीं है तो उसके होने में देर क्यों होगी ? अतः जन्म के दूसरे क्षण में ही प्रत्येक वस्तु का नाश हो जाता है । अतः एक वस्तु का अनेक क्षणों में अस्तित्व न होने से उसमें कालभेद से किसी का सम्बन्ध और असम्बन्ध नहीं हो सकता । ___इस युक्ति से भी सम्बन्ध और असम्बन्ध के विरोध का समर्थन नहीं हो सकता, क्योंकि वस्तु-नाश की कारणनिरपेक्षता अप्रामाणिक है । देशभेद से एक काल में और कालभेद से एक देश में वस्तु के भाव और अभाव का समर्थन हो सकता है किन्तु एक ही देश काल में एक ही वस्तु के भाव और अभाव नहीं रह सकते । अतः एक बीज में एक काल में सहकारी के सम्बन्ध और असम्बन्ध की मान्यता ठीक नहीं है। इस प्रकार से भी स्थैर्यपक्ष में विरोध का उद्भावन नहीं किया जा सकता। क्योंकि स्थैर्यवादी भी एक ही देश-काल में वस्तु का भाव और अभाव नहीं मानते और जिस वस्तु का एक देश-काल में भाव और अभाव मानते हैं उसका भी अवच्छेद-भेद अर्थात्
SR No.022404
Book TitleJain Nyaya Khand Khadyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBadrinath Shukla
PublisherChowkhamba Sanskrit Series
Publication Year1966
Total Pages192
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy