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फलतः असन्दिग्ध रूप से यह कहा जा सकता है कि अक्षेपकारित्व और क्षेपकारित्व ये दोनों ही वस्तु के स्वभाव हैं ।
ऐसा मानने पर यहाँ यह शङ्का उठ सकती है कि स्वभाव अपने आश्रय को कभी नहीं छोड़ता, यह एक सुप्रसिद्ध नियम है । अतः वस्तु के उक्त दो स्वभाव मानने पर उन दोनों स्वभावों का प्रत्येक वस्तु में सर्वदा सद्भाव मानना होगा, पर यह सम्भव नहीं है । क्योंकि सहकारियों का सन्निधान और असन्निधान ये दोनों एक दूसरे का विरोधी होने के कारण एक वस्तु में एक ही समय नहीं हो सकते। अतः उनसे नियन्त्रित उक्त दोनों स्वभाव भी एक साथ नहीं रह सकते । इसलिये उन्हें वस्तु का स्वभाव मानना असङ्गत है ।
परन्तु यह शङ्का ठीक नहीं है, क्योंकि स्वभाव वस्तु का एक धर्म है जो अपने आश्रय में रहता हुआ भी उससे सर्वथा भिन्न है । अतः आश्रय के रहते भी उसका न रहना अनुचित नहीं कहा जा सकता ।
बौद्ध के उक्त प्रश्न का न्याय दृष्टि से यह जो उत्तर दिया गया है वह वस्तु की स्थिरता पक्ष मात्र में अवधारणात्मक होने के कारण जैनशासन की दृष्टि से कथा के पूर्वरूप ही में समाविष्ट हो जाता है । अतः कथा के वास्तविक उत्तर रूप को स्याद्वाद के आधार पर ही स्थिर करना होगा । जिसके फलस्वरूप क्षणिकता और स्थिरता इन दोनों को ही दृष्टिभेद से वस्तु का धर्म मानना होगा ।
स्याद्वादनाम्नि तव दिग्विजयप्रवृत्ते
सेनापतौ जिनपते ? नयसार्वभौम ? नश्यन्ति तर्कनिवहाः किमु नाम नेष्टा
पत्तिप्रभूतबल पत्तिपदप्रचारात् ॥ ९ ॥
हे जिनेश्वर ! तुम समस्त नयों के सम्राट् हो, तुम्हारा सेनापति स्याद्वाद निन्द्य नयों के कुसंस्कार रूपी दुर्गों में निर्भय निवास करनेवाले महान् अज्ञान का विनाश करने के उद्देश्य से जिस समय दिग्विजय की यात्रा आरम्भ करता है क्या उसी समय तुम्हारे विरोधी विभिन्न शास्त्रों के सभी तर्क तुम्हारी इष्टापत्ति आदि बलवती सेना के सञ्चार मात्र से ही नष्ट नहीं हो जाते ?
जैनशास्त्र में वस्तुस्वरूप का परीक्षण किं वा निर्धारण करने के लिये स्याद्वाद की मान्यता स्वीकृत की गयी है । दूसरे प्रमाणों से इसकी विशेषता यही है कि जहाँ दूसरे प्रमाण परस्पर विरोधी धर्मों में से किसी एक ही का अस्तित्व एक वस्तु में सिद्ध करते हैं वहाँ यह एक ही वस्तु में धों का अस्तित्व सिद्ध करता है । यही कारण है कि अन्य
अनेक विरोधी शास्त्रों के तर्क