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( १७८ ) सम्यक् चारित्र के प्रभाव से पवित्र चित्त होने के कारण मोक्ष को आत्मसात् करने में दक्ष होते हैं । तात्पर्य यह कि चारित्र की श्रेष्ठता प्रत्येक स्थिति में अक्षुण्ण है।
संज्ञानयोगघटितं शमिनां तपोऽपि
श्रेण्याश्रयादिह निकाचितकर्महन्त । बाह्यं तपः परमदुश्चरमाचरध्व
माध्यात्मिकस्य तपसः परिबृंहणार्थम् ॥ ९८ ॥ सम्यक ज्ञान रूप योग से युक्त तप अपूर्वकरण की श्रेणी का आलम्बन कर शमसम्पन्न साधकों के निकाचित-भोगैकनाश्य संचित कर्मों को भी नष्ट कर देता है, अतः साधक को अपने आध्यात्मिक तप के बलवर्धन के लिये परम कठिन भी बाह्यतप का अनुष्ठान बड़ी तत्परता के साथ करना चाहिये ।
इत्थं विशिष्यत इदं चरणं तवोक्तौ
तैस्तैनौः शिवपथे स्फुटमेदवादे । चिच्चारुतां परमभावनयस्त्वभिन्न
रत्नत्रयी गलितबाह्यकथां विधत्ते ।। ९९ ॥ पूर्वोक्त रीति से भिन्न-भिन्न नयों की दृष्टि से मोक्षमार्ग की भिन्नता नितान्त स्फुट है, फिर भी भगवान् महावीर के शासन में ज्ञान एवं दर्शन की अपेक्षा चारित्र का ही उत्कर्ष माना गया है और परमभावनय- शुद्धनिश्चनय सारी बाह्यकथा- समस्त भेदचर्चा का विदलन कर ज्ञान, दर्शन, चारित्ररूप रत्नत्रय की फलतः अभिन्नता का प्रतिपादन करता हुआ चित्स्वरूप आत्मा की चारुताविशुद्ध स्वरूपनिष्ठा को प्रतिष्ठित करता है।
अशुद्धिः शुद्धिं न स्पृशति वियतीवात्मनि कदा.
ऽप्यथारोपाकोपारुणिमणिकाकातरदृशाम् । त्वदुक्ताः पर्याया घनतरतरङ्गा इव जवाद्
विवर्त्तव्यावृत्तिव्यतिकरभृतश्चिजलनिधौ ॥ १००॥ जिस प्रकार धूल, धुवाँ, वर्षा आदि का उत्पात होने पर किसी प्रकार की भी मलिनता आकाश की निसर्ग निर्मलता को कभी निरस्त नहीं कर पाती उसी प्रकार क्रोध के अरुण-कणों से कातर नेत्र वाले विरोधियों के आरोप से किसी प्रकार की भी अशुद्धि आत्मा की स्वाभाविक शुद्धि को कदापि अभिभूत नहीं कर सकती। भगवान् महावीर ने आत्मा में मनुष्यत्व, देवत्व आदि जिन पर्यायों का अस्तित्व बताया है और जिनमें नाना प्रकार के विवर्ती