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________________ ( १७७ ) न श्रेणिकस्य न च सात्यकिनो न विष्णोः सम्यक्त्वमेकममलं शरणं बभूव । चारित्रवर्जिततया कलुषाविलास्ते प्राप्ता गतिं घनतमैर्निचितां तमोभिः ॥ ९५ ॥ श्रेणिक, सात्यकि और विष्णु निर्मल सम्यक्त्व से सम्पन्न थे, पर अकेले सम्यक्त्व से उनकी रक्षा न हो सकी, किन्तु चारित्रहीन होने के कारण पाप से कलुषित हो उन्हें घोर अन्धकार से पूर्ण नारकी गति प्राप्त करनी पड़ी। इससे स्पष्ट है कि चारित्र के अभाव में ज्ञान और श्रद्धा दोनों का कोई मूल्य नहीं होता । न ज्ञानदर्शनधरैर्गतयो हि सर्वाः शून्या भवन्ति नृगतौ तु चरित्रमेकम् । न ज्ञानदर्शन गुणाढ्यतया प्रमादः कार्यस्तदार्यमतिभिश्चरणे कदापि ॥ ९७ ॥ मनुष्य योनि की यह देव, मनुष्य, पशु-पक्षी तथा नारकीय जीव आदि की जितनी भी योनियां हैं वह ज्ञान और श्रद्धा से युक्त पुरुषों से शून्य नहीं होतीं, अर्थात् ज्ञान और श्रद्धा से सम्पन्न जीव सभी योनियों में होते हैं, किन्तु विशेषता है कि उसमें जीव को चारित्र अर्जन करने का अवसर मिलता है। और वह उस अवसर का लाभ उठा कर चारित्र से मण्डित हो जन्म-मरण के बन्धन से मुक्ति प्राप्त कर सकता है। तो फिर जब यह स्पष्ट है कि ज्ञान और श्रद्धा के गुणों से सम्पन्न होने पर भी चारित्र के अभाव में जीव को विविध योनियों में भटकना पड़ता है तो सद्बुद्धि मानक को अपने ज्ञान और श्रद्धा के वैभव पर अहङ्कार न कर चारित्र के अर्जन में दत्तचित्त होना चाहिये । उस विषय में उसे कदापि प्रमाद न करना चाहिये । श्राद्धश्चरित्रपतितोऽपि च मन्दधर्मा पक्षं त्रयोऽपि कलयन्त्विह दर्शनस्य । चारित्रदर्शन गुणद्वय तुल्यपक्षा दक्षा भवन्ति सुचरित्र पवित्रचित्ताः ॥ ९७ ॥ श्रावक, चारित्र की समुन्नत मर्यादा से च्युत साधक तथा धर्म के आचरण में मन्द उत्साह वाले मानव इन तीनों को ही मोक्षमार्ग पर प्रस्थान करने के लिये दर्शनपक्ष का आश्रय लेना चाहिये । क्योंकि दर्शन-श्रद्धा का धरातल दृढ़ होने पर अन्य सब साधनों के सम्पन्न होने का पथ प्रशस्त हो जाता है । जिन साधकों के चारित्र और दर्शन दोनों पक्ष समान रूप से परिपुष्ट होते हैं वे १२ न्या० ख०
SR No.022404
Book TitleJain Nyaya Khand Khadyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBadrinath Shukla
PublisherChowkhamba Sanskrit Series
Publication Year1966
Total Pages192
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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