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________________ ( १७५ ) इस श्लोक में ज्ञान की अपेक्षा क्रिया का प्राशस्त्य बताया गया है, श्लोकार्थ इस प्रकार है। ऐसे बहुत लोग होते हैं जो शास्त्र का अध्ययन करके भी मूर्ख ही रह जाते हैं. तदनुसार क्रियाशील नहीं हो पाते। जो पुरुष शास्त्रानुसार क्रियापरायण होता है, वही सच्चे अर्थ में विद्वान होता है। यह कौन नहीं जानता कि औषध को जानकर उसका चिन्तनमात्र करने से रोग से मुक्ति नहीं मिलती किन्तु उसके लिए औषध का सविधि सेवन अपेक्षित होता है । ज्ञानं स्वगोचरनिबद्धमतः फलाप्ति. ३कान्तिकी चरणसंवलितात्तथा सा | शातानि चात्र तरणोत्कनटीपथक्षा श्चेष्टान्वितास्तदितरे च निदर्शितानि ॥ ९२॥ इस श्लोक में केवल ज्ञान को नहीं किन्तु कर्मयुक्त ज्ञान को फलसिद्धि का कारण बताया गया है, श्लोकार्थ इस प्रकार है। ज्ञान अपने विषय में बंधा होता है, वह अपने विषय का प्रकाशन मात्र कर सकता है, उसकी प्राप्ति कराने में वह अकेले असमर्थ है, अतः यह निविवाद है कि कोरे ज्ञान से फल की सिद्धि नियत नहीं है, नियत फलसिद्धि तो चरण-कर्म से युक्त ज्ञान के द्वारा ही सम्भव है। इस विषय में कई दृष्टान्त भी प्रसिद्ध हैं, जैसे तैरने की कला में निपुणता और तैरने की इच्छा होते हुये भी मनुष्य किसी नदी को तब तक नहीं तैर पाता जब तक वह तैरने के लिये हाथ पैर चलाने की शारीरिक क्रिया नहीं करता, एवं नाचने की कला में कुशल और नाचने को इच्छूक भी नर्तकी तब तक नृत्य नहीं कर पाती जब तक वह अङ्गों के आवश्यक अभिनय में सक्रिय नहीं होती, मार्ग जानने वाला और उस मार्ग पर यात्रा की इच्छा रखने वाला भी मनुष्य उस मार्ग पर तब तक नहीं चल पाता जब तक वह उस मार्ग पर पैर बढ़ाने की क्रिया नहीं करता। इन दृष्टान्तों से स्पष्ट है कि अकेले ज्ञान से कोई कार्य नहीं होता किन्तु उसके लिये उसे कर्म के सहयोग की अपेक्षा होती है, अतः जैनशासन का यह सिद्धान्त प्रबल प्रमाणों और युक्तियों पर आधारित है कि सम्यक् चारित्रयुक्त सम्यक् ज्ञान से ही मोक्ष का लाभ होता है । इसलिये प्रत्येक भुमुक्षु जन को ज्ञान और चारित्र दोनों के ही अर्जन के लिये प्रयत्नशील होना चाहिये । मुक्त्वा नृपो रजतकाञ्चनरत्नखानी. ___ोहाकरं प्रियसुताय यथा ददाति । तद्वद् गुरुः सुमुनये चरणानुयोगं शेषत्रयं गुणतयेत्यधिका क्रियैव ।। ९३ ॥
SR No.022404
Book TitleJain Nyaya Khand Khadyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBadrinath Shukla
PublisherChowkhamba Sanskrit Series
Publication Year1966
Total Pages192
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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