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________________ (१७४) सकता है। कहने का तात्पर्य यह है कि यदि क्रिया को मोक्ष का सार्वत्रिक कारण माना जाय तो उसमें उक्त व्यभिचार बाधक हो सकता है पर यदि क्रियाविशेष को पुरुषविशेष के मोक्ष का . कारण माना जाय तो उसमें उक्त व्यभिचार. बाधक नहीं हो सकता, अतः जैन दर्शन की इस मान्यता में कोई दोष नहीं हो सकता कि जिस पुरुष को ज्ञानप्राप्ति के अनन्तर मोक्षलाभ होता है उस पुरुष के मोक्ष के प्रति ज्ञान कारण होता है और जिस पुरुष को चारित्रसम्पत्ति के समनन्तर मोक्षलाभ होता है उस पुरुष के मोक्ष के प्रति क्रिया-चारित्र कारण होता है । ... यदि यह कहा जाय कि ज्ञान ही मोक्ष का प्रधान कारण है और क्रिया उसका द्वार है और द्वार की अपेक्षा द्वारी का प्रामुख्य होता है अतः क्रिया की अपेक्षा ज्ञान की प्रधानता अनिवार्य है, तो यह ठीक नहीं है, क्योंकि द्वारद्वारिभाव ज्ञान और क्रिया दोनों में समान है, अर्थात् जैसे कहीं ज्ञान प्रधान और क्रिया उसका द्वार होती है उसी प्रकार कहीं क्रिया प्रधान और ज्ञान उसका द्वार होता है, इसलिए कहीं क्रिया द्वारा ज्ञान और कहीं ज्ञान द्वारा क्रिया से मोक्ष की सिद्धि होने के कारण एकान्त रूप से यह कथन उचित नहीं हो सकता कि ज्ञान मोक्ष का प्रधान साधन है और क्रिया अप्रधान । सम्यक्त्वशोधकतयाऽधिकतामुपैतु ज्ञानं ततो न चरणं तु विना फलाय । ज्ञानार्थवादसदृशाश्चरणार्थवादाः श्रयन्त एव बहुधा समये ततः किम् ? ॥ ९० ॥ सम्यक्त्व-श्रद्धा का शोधक होने से ज्ञान का स्थान यदि कुछ ऊँचा होता है तो हो, पर इसका यह अर्थ नहीं हो सकता कि ज्ञान क्रिया-निरपेक्ष हो कर फल का साधक भी होता है। यदि ज्ञान की प्रशंसा करने वाले अर्थवाद वचनों के बल पर ज्ञान को प्रधानता दी जाय, तो यह ठीक नहीं हो सकता, क्योंकि जैन शासन में क्रिया की भी प्रशंसा करने वाले बहुत से अर्थवाद वचन उपलब्ध होते हैं, अतः अर्थवाद वचनों के आधार पर कोई एफपक्षीय निष्कर्ष नहीं निकाला जा सकता। शास्त्राण्यधीत्य बहवोऽत्र भवन्ति मूर्खा यस्तु क्रियैकनिरतः पुरुषः स विद्वान् । सश्चिन्त्यतां निभृतमौषधमातुरं किं. विज्ञातमेव वितनोत्यपरोगजालम् ॥९१ ॥
SR No.022404
Book TitleJain Nyaya Khand Khadyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBadrinath Shukla
PublisherChowkhamba Sanskrit Series
Publication Year1966
Total Pages192
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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