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________________ ( १५६ ) ऋजुसूत्र के अनुसार प्राधान्येन उत्पाद और व्यय रूप से ही द्रव्य का बोध होता है । शब्द नय के अनुसार द्रव्य शब्द से उत्पन्न होने वाला बोध उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य को भी विषय करता है। समभिरूढ़ का विषय शब्द नय की अपेक्षा संकुचित एवं सूक्ष्म होता है। अतः उसके अनुसार द्रव्य शब्द से उत्पन्न होने वाला बोध उत्पाद आदि शब्दों को विषय न कर केवल द्रव्य शब्द को विषय करता है । एवम्भूत नय के अनुसार द्रव्य शब्दार्थ का बोध द्रव्य शब्द के व्युत्पत्तिगम्य रूप को भी विषय करता है। विशुद्ध संग्रह नय के अनुसार द्रव्य शब्द से अद्वैत दर्शनसम्मत एक अखण्ड सत्तामात्र का बोध होता है और विशुद्ध पर्याय नय के अनुसार बौद्धसम्मत सर्वशून्यता का बोध होता है। यहाँ इस बात को ध्यान में रखना आवश्यक है कि नय जितने भी हैं वे सब वस्तु के किसी-किसी अंश को ही प्रदर्शित करते हैं। उसके अविकल रूप को प्रदर्शित करने की शक्ति उनमें नहीं होती। वस्तु के सम्पूर्ण स्वरूप का परिज्ञान तो 'स्याद्वाद' से ही हो सकता है। 'स्याद्वाद' की इस महिमा को स्फुट करने के लिये ही जैनदर्शन में सप्तभङ्गी नय की प्रतिष्ठा की गयी है और 'अनेकान्त' को ही वस्तु का प्राण माना गया है । द्रव्याश्रया विधिनिषेधकृताश्च भनाः कृत्स्नैकदेशविधया प्रभवन्ति सप्त। आत्माऽपि सप्तविध इत्यनुमानमुद्रा त्वच्छासनेऽस्ति विशदव्यवहारहेतोः ॥ ६६ ॥ इस पद्य में सामान्यरूप से द्रव्यमात्र में तथा विशेषरूप से आत्मा में सप्तभनी न्याय की उपपत्ति बतायी गयी है। द्रव्यत्व को उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य रूप मानने पर यह प्रश्न उठता हे कि द्रव्यत्व का यह स्वरूप ही जैनदर्शन में सत्ता का स्वरूप है। अतः वह जगत् के समस्त पदार्थों में विद्यमान है। उसके अभाव के लिये कहीं कोई स्थान नहीं है । फलतः द्रव्यत्व के विधि-निषेध के आधार पर 'स्याद् द्रव्यम्', स्याद् अद्रव्यम्, स्याद् द्रव्यं च अद्रव्यं च, स्याद् अवक्तव्यम् , स्याद् द्रव्यं च अवक्तव्यं च, स्याद् अद्रव्यं च अवक्तव्यं च, स्याद् द्रव्यं च अद्रव्यं च अवक्तव्यं च' इस सप्तभङ्की न्याय की प्रवृत्ति नहीं हो सकती और उसके अभाव में किसी भी द्रव्य का विशेषेण आत्मा का अविकल स्वरूप प्रकाश में नहीं आ सकता। इस प्रश्न का उत्तर इस पद्य में यह दिया गया है कि कृत्स्न-समुदाय और एक देश की अपेक्षा द्रव्यत्व और उसके अभाव की कल्पना करके एक ही वस्तु में उक्त सातो भङ्ग उपपन्न किये जा सकते हैं क्योंकि वस्तु के सम्पूर्ण भाग में
SR No.022404
Book TitleJain Nyaya Khand Khadyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBadrinath Shukla
PublisherChowkhamba Sanskrit Series
Publication Year1966
Total Pages192
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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