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________________ ( १४६ ) किसी से नहीं हो सकती क्योंकि अनुगत प्रतीति से यदि द्रव्यत्व की सिद्धि मानी जायगीतो अतीन्द्रिय द्रव्यों में उसकी अनुगत प्रतीति न होने से उनमें द्रव्यत्व का अभाव होगा । अनुगत व्यवहार से भी द्रव्यत्व जाति की सिद्धि नहीं मानी जा सकती क्योंकि द्रव्य के अनुगत व्यवहार में वादियों का ऐकमत्य नहीं है । कार्यकारणभाव-द्वारा भी द्रव्यत्व की सिद्धि नहीं मानी जा सकती क्योंकि समवाय सम्बन्ध से जन्यभाव के प्रति तादात्म्य सम्बन्ध से द्रव्य कारण है । इस प्रकारका कार्यकारणभाव निष्प्रयोजन होने से अमान्य है। इस सन्दर्भ में यह कहना कि अद्रव्य में भावकार्य की उत्पत्ति का परिहार करने के लिये उक्त कार्यकारणभाव को मानना आवश्यक है, ठीक नहीं है, क्योंकि कार्यका जन्म उसी वस्तु में होता है जिसमें असत्कार्यवादी के अनुसार कार्यका प्रागभाव होता है वा सत्कार्यवादी अथवा सदसत्कार्यवादी के अनुसार कार्यका तादात्म्य होता है। अद्रव्यमें किसी कार्यका प्रागभाव वा तादात्म्य नहीं होता, अतः उक्त कार्यकारणभाव के विना भी अद्रव्य में कार्यकी उत्पत्ति की आपत्ति नहीं हो सकती । फलतः 'द्रव्यत्व जातिकी सिद्धि में कोई प्रमाण न होने से उसके सम्बन्ध से किसी पदार्थ को द्रव्य और उसके असम्बन्ध से किसी पदार्थ को अद्रव्य नहीं कहा जा सकता । निष्कर्ष यह है कि परिणामी कारण होना ही द्रव्य होने की पहचान है और परिणामी कारण उक्त रीति से एकान्ततः द्रव्यरूप ही नहीं हो सकता। अतः आत्मा भी परिणामी कारण होने से द्रव्य तो है पर केवल द्रव्य ही नहीं है अपितु द्रव्य, पर्याय उभयात्मक है। नाशोद्भवस्थितिभिरेव समाहृताभि व्यत्वबुद्धिरिति सम्यगदीडशस्त्वम् । एकान्तवुद्धयधिगते खलु तद्विधान मात्मादिवस्तुनि विवेचकलक्षणार्थः॥ ६४॥ भगवान् महावीर की यह दृष्टि नितान्त समीचीन है कि उत्पत्ति, विनाश तथा ध्रौव्य-स्थायित्व के समाहार से ही द्रव्यत्व की प्रतीति होती है और उसी से बौद्धों द्वारा एकान्ततः क्षणिक एवं नैयायिकों द्वारा एकान्ततः नित्य माने गये आत्मा में द्रव्यव्यवहार तथा उसी से आत्मा में इतरभेद अर्थात् जैनशासनानुसार आत्मा के द्रव्य अंश मे उसके पर्याय अंश के भेद की सिद्धि होती है। तात्पर्य यह है कि बौद्धदर्शन की एकान्त दृष्टि के अनुसार आत्मा प्रवहमान क्षणिकज्ञानरूप है और नैयायिक के अनुसार ज्ञान आदि गुणों का आश्रयभूत नित्य द्रव्य रूप है । भगवान् महावीर द्वारा दृष्ट द्रव्यलक्षण बौद्ध, नैयायिक दोनों द्वारा स्वीकृत आत्मा में उपपन्न होता है। जैसे बौद्धसम्मत आत्मा में प्रवाही ज्ञानकी अपेक्षा उत्पत्ति तथा विनाश का और प्रवाह की अपेक्षा ध्रौव्य
SR No.022404
Book TitleJain Nyaya Khand Khadyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBadrinath Shukla
PublisherChowkhamba Sanskrit Series
Publication Year1966
Total Pages192
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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