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________________ (१४८) कारण का अपने कार्यों से भेद नहीं होता। फलतः सभी कार्य अपने परिणामी कारण के रूप में पहले से ही अवस्थित रहते हैं। उनका जन्म उन्हें अस्तित्व प्रदान करने के लिये नहीं होता किन्तु अभिव्यक्ति प्रदान करने के लिये होता है। यदि यह कहा जाय कि समवायिकारण और परिणामी कारण में कोई भेद नहीं होता क्योंकि नैयायिक जिसे समवादिकारण कहते हैं, जैन उसी को परिणामी कारण कहते हैं। अतः यह कहना उचित नहीं हो सकता कि कोई पदार्थ समवायिकारण होने से द्रव्य नहीं हो सकता किन्तु परिणामी कारण होने से ही द्रव्य हो सकता है। तो यह ठीक नहीं है, क्योंकि उनके लक्षण से ही उनका भेद स्पष्ट है। जैसे जो कार्य अपने जिस कारण में समवाय सम्बन्ध से आश्रित होता है वह कारण उसका समवायिकारण होता है जैसे कपाल घट का, तन्तु पट का । इस लक्षण के अनुसार एक सर्वथा नवीन वस्तु अपने विशेष कारण में समवायनामक एक अतिरिक्त सम्बन्ध से अस्तित्व प्राप्त करती है। परिणामी कारण उसे कहा जाता है जो क्रम से प्रादुर्भूत होने वाले अपने विविध रूपों में पूर्ववर्ती रूप का त्याग और उत्तरवर्ती रूप का उपादान करते हुए उन सभी रूपों के बीच अपने मौलिक रूप को अक्षुण्ण बनाये रहता है। जैसे मिट्टी अपने पूर्ववर्ती पिण्डाकार को छोड़ घटाकार को प्राप्त करती है और दोनों आकारों में अपने मौलिक मिट्टी-रूप को अक्षुण्ण बनाये रहती है और इसी लिये वह पिण्ड, घट आदि का परिणामी कारण होती है। इस लक्षण के अनुसार यह निर्विवाद है कि परिणामी कारण से उत्पन्न होने वाला कार्य उत्पत्ति से पूर्व एकान्ततः सत् अथवा असत् नहीं होता अपि तु अपेक्षा भेद से सत् और असत् उभयात्मक होता है। यदि यह कहा जाय कि किसी पदार्थ का द्रव्य होना समवायिकारणता वा परिणामिकारणता के अधीन नहीं है किन्तु द्रव्यत्व जाति के अधीन है। जिसमें द्रव्यत्व जाति रहेगी वह द्रव्य होगा और जिसमें वह नहीं रहेगी वह द्रव्य नहीं होगा, तो यह भी ठीक नहीं हैं, क्योंकि भगवान् महावीर के शासनानुसार वही पदार्थ द्रव्य होता है जो एक ही समय में अपने किसी रूप से उत्पन्न तथा किसी रूप से विनष्ट होता रहता है और साथ ही अपने किसी रूप से सुस्थिर भी बना रहता है। द्रव्यत्व जाति के सम्बन्ध से किसी पदार्थ का द्रव्य होना स्याद्वादशासनकी दृष्टिमें संगत नहीं हो सकता क्योकि उसकी दृष्टि में द्रव्यत्व जाति स्वयं ही असिद्ध है । न्यायमत में अनुगत प्रतीति, अनुगत व्यवहार और अनुगत कार्यकारणभावसे जाति की सिद्धि की जाती है, किन्तु द्रव्यत्वकी सिद्धि इनमें
SR No.022404
Book TitleJain Nyaya Khand Khadyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBadrinath Shukla
PublisherChowkhamba Sanskrit Series
Publication Year1966
Total Pages192
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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