________________
( १४४ ) कर्म-विमुख हो जायगा और उस दशा में समाज-रचना तथा राष्ट्र निर्माण का कार्य असम्भव हो जायगा, जगत् को सारी व्यवस्था ही संकट में पड़ जायगी। ___ असत्त्व का अर्थ देश एवं काल के साथ सम्बन्ध का सामान्याभाव भी नहीं किया जा सकता, क्योंकि न्यायमतानुसार बुद्धि में आरूढ होने वाले प्रत्येक पदार्थ के किसी न किसी देश एवं काल से अवश्यमेव सम्बद्ध होने के कारण उक्त प्रकार के असत्त्व की कहीं प्रसिद्धि नहीं हो सकती। अतः किसी पदार्थ में उक्त असत्त्व की साधनता का ज्ञान असम्भव होने के कारण उसका साधन अशक्य है।
निःस्वरूपता को भी असत्त्व का अर्थ नहीं माना जा सकता, क्योंकि प्रत्येक तत्त्वचिन्तक द्वारा आत्मा का कोई न कोई स्वरूप स्वीकार किये जाने के कारण उसकी निःस्वरूपता बाधित है।
प्रमेयत्वामाव अर्थात् यथार्थ ज्ञान का विषय न होना भी असत्त्व का अर्थ नहीं किया जा सकता क्योंकि आत्मवादी को आत्मा के विषय में जो ज्ञान है वह यदि यथार्थ हो तो आत्मा में प्रमेयत्वाभाव बाधित है और यदि वह यथार्थ न हो तो आत्मवादी द्वारा माना जाने वाला आत्मविषयक ज्ञान यथार्थ होगा, और उस स्थिति में भी आत्मा में प्रमेयत्वाभाव बाधित होगा। ____ असत्त्व का अर्थ सत्ता जाति का अभाव भी नहीं माना जा सकता, क्यों कि उस जाति से शून्य सामान्य, विशेष आदि अनेक पदार्थ न्यायमत में स्वीकृत है जिन्हें असत् नहीं माना जाता।
यदि यह कहा जाय कि असत्त्व का एक पारिभाषिक अर्थ विवक्षित है और वह है अनुपादेयता-अवाञ्छनीयता। कहने का तात्पर्य यह है कि भले आत्मा का अस्तित्व युक्तिसम्मत हो और वह नित्य विभुद्रव्य-रूप भी हो, पर उस प्रकार का आत्मा मोक्षार्थी के लिये अनुपादेय-अवाञ्छनीय है, क्योंकि जब मनुष्य आत्मा को-अपने आपको नित्य-चिरस्थायी अथवा सर्वदा रहने वाला समझेगा तो अपने को सुखभोग के भौतिक साधनों से सदैव सम्पन्न बनाये रखने का प्रयत्न करेगा. उसके इस प्रयत्न में जो लोग सहायक होंगे उनसे वह राग-स्नेह करेगा और जो बाधक होंगे उनसे द्वेष करेगा, इस प्रकार राग, द्वेष से प्रेरित हो वह भले बुरे का विवेक न कर उचित अनुचित कार्यों में सदैव व्यस्त रहेगा, उन कार्यों से बनने वाली वासनावों में बँधता रहेगा
और उन वासनावों के अनुसार जन्म-मृत्यु के चक्र में निरन्तर पिसता रहेगा, जगत् के वैषयिक क्षेत्र के बाहर उसकी दृष्टि कभी जायगी ही नहीं फलतः वह