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________________ ( १४३ ) ऐसा निर्वचन जिसके अनुसार वह असत्त्व का साधक हो सके, अशक्य है, जैसे अनुपलब्धि का अर्थ यदि ज्ञान सामान्याभाव हो तो वह आत्मा के विषय में स्वयं असिद्ध है, क्योंकि 'आत्मा नहीं है' आत्मा का यह निषेधग्राही ज्ञान अनात्मवादी को भी मान्य है, यदि यह ज्ञान उसे होगा तो वह आत्मा के असत्त्व की बात भी कैसे कर सकेगा ? फलतः ज्ञानसामान्याभाव के असिद्ध होने से उससे आत्मा के असत्त्व का साधन नहीं हो सकता। यदि अनपलब्धि का अर्थ ज्ञानसामान्याभाव न कर प्रत्यक्षज्ञानाभाव किया जाय तो उसमें भी अनेक दोष हैं, जैसे प्रत्यक्षज्ञानाभाव का अर्थ क्या होगा, मनुष्य मात्र के प्रत्यक्षज्ञान का अभाव अथवा किसी एक मनुष्य के प्रत्यक्षज्ञान का अभाव । यदि पहला अर्थ लिया जाय तो उसे आत्मा में सिद्ध नहीं किया जा सकता, क्योंकि इस बात को प्रमाणित करने का कोई उपाय नहीं है कि संसार में किसी भी मनुष्य को आत्मा का प्रत्यक्ष ज्ञान नहीं है, यदि दूसरा अर्थ लिया जाय तो वह असत्त्व का व्यभिचारी है, क्यों कि संसार में ऐसे असंख्य पदार्थ हैं जो देश, काल की दूरी के कारण एक मनुष्य के प्रत्यक्ष ज्ञान का विषय न होने पर भी मान्य हैं, इस प्रकार अनुपलब्धि की निर्दोष व्याख्या सम्भव न होने से उमके द्वारा आत्मा के असत्त्व का साधन नहीं किया जा सकता, इसके अतिरिक्त आत्मा के असत्त्व का साधन करने में दूसरी बाधा यह है कि जिस असत्त्व का साधन करना है उसकी कोई निर्दोष व्याख्या नहीं हो सकती, जैसे असत्त्व का अर्थ यदि अत्यन्ताभाव किया जाय तो उसके साधन का प्रयास व्यर्थ होगा, क्यों कि न्यायमत के अनुसार नित्य द्रव्य के अनाश्रित होने से आत्मा का अत्यन्ताभाव स्वतः सर्वत्र सिद्ध है, यदि असत्त्व का अर्थ प्रागभाव और ध्वंस किया जाय और तदनुसार शरीर के साथ आत्मा का जन्म और उसके अवसान के साथ आत्मा का अवसान माना जाय तो कृतहान और अकृताभ्यागम ये दो महान् दोष प्रसक्त होंगे। तात्पर्य यह है कि यदि शरीर के साथ आत्मा का जन्म होगा, शरीर के पूर्व आत्मा का अस्तित्व न होगा तो जन्मकाल से ही मनुष्य को जो अनेक प्रकार के सुख, दुःख का भोग होने लगता है उसे अकृताभ्यागम-अकृत कर्मो का ही फल मानना होगा, इसी प्रकार यदि शरीर के अवसान के साथ ही आत्मा का भी अवसान होगा तो कृतहानजीवन में किये गये जिन कर्मों का फल जीवनकाल में नहीं प्राप्त हुआ, उनका नैरर्थक्य होगा। इन दोनों दोषों की उपेक्षा भी नहीं की जा सकती, क्यों कि इन दोषों का परिहार न होने पर मनुष्य के मन में यह बात बैठ सकती है कि कर्म न करने पर भी कर्म का फल प्राप्त हो सकता है और किये हुये कर्म भी व्यर्थ हं! सकते हैं, और जब यह बात मनुष्य के मन में घर कर लेगी तब वह
SR No.022404
Book TitleJain Nyaya Khand Khadyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBadrinath Shukla
PublisherChowkhamba Sanskrit Series
Publication Year1966
Total Pages192
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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