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________________ ( १०१ ) उनसे यह पूछते हैं कि जगत् के सम्बन्ध की उक्त मान्यतायें तुम जिस विचार के आधार पर स्वीकार करते हो वह कौन और कैसा है ? तब इस प्रश्न के उत्तर में वे जिस विचार को प्रस्तुत करते हैं वह पामरों के विचार के समान नगण्य और दोषग्रस्त प्राप्त होता है । श्लोक का अभिप्राय यह है कि बौद्धों ने विश्व के बारे में जो अपनी धारणायें बना रखी हैं वे किसी प्रामाणिक विचार पर आधारित न होने से अमान्य हैं। क्योंकि यदि वे अपने मतों को प्रामाणिक विचार पर आधारित मानेंगे तो उन्हें विचार तथा उसके अङ्गभूत वादी, प्रतिवादी, मध्यस्थ, विचार्य विषय, प्रमाण और विचार के लिये अपेक्षित नियम आदि की सत्ता अवश्य स्वीकार करनी पड़ेगी। फिर इतने पदार्थों को सत् , निर्वाच्य और विचारसह मानते हुए वे जगत् को इससे विपरीत अर्थात् असत् , अनिर्वाच्य एवं विचारासह कैसे मान सकेंगे। और यदि वे अपने मतों को प्रामाणिक विचार के आश्रित न मानकर केवल अपनी मनःप्रसूत कल्पना पर ही उन्हें निर्भर करेंगे तो उनके वे विचार उसी प्रकार त्याज्य और उपहास्य होंगे जिस प्रकार मूत्रत्याग और चीत्कार करते हुये, बड़े बड़े श्वेत दांत वाले हाथी के बारे में किसी गंवार के ये विचार कि वह एक बादल है, जो बरस और गरज रहा है तथा पक्षियों से युक्त है। बाह्ये परस्य न च दूषणदानमात्रात् स्वामिन् ! जयो भवति येन नयप्रमाणैः । प्राः कृतैव बहुधाऽवयविप्रसिद्धि. इक्संक्रमादवतरन्ति न दूषणानि ॥४७॥ ज्ञान का विषय ज्ञान से भिन्न होता है-इस पक्ष में दोष दे देने मात्र से विज्ञानवादी को विजयलाभ नहीं हो सकता। क्योंकि विद्वानों ने नय और प्रमाण के बल बड़े विस्तार से अवयवी का साधन किया है, और अवयवी की सिद्धि उसे ज्ञान से भिन्न मानने पर ही हो सकती है । कारण कि ज्ञान निरवयव होता है और घट आदि अवयवी द्रव्य सावयव होते हैं, अतः निरवयव ज्ञान तथा सावयव घट आदि द्रव्य का परस्पर अभेद नहीं हो सकता। अन्य शास्त्रकारों ने अवयवावयविभाव में जो दोष बताये हैं वे भी अतिरिक्त अवयवी की सिद्धि में बाधक नहीं हो सकते, क्योंकि उन दोषों का-संक्रमण ज्ञेय और ज्ञान के अभेदपक्ष में भी होता है। इसलिये उन दोषों का कोई न कोई समाधान दोनों वादियों को करना ही होगा।
SR No.022404
Book TitleJain Nyaya Khand Khadyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBadrinath Shukla
PublisherChowkhamba Sanskrit Series
Publication Year1966
Total Pages192
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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