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घटाभाव की प्रतियोगिता का नियन्ता माना जाता है । फलतः घटत्व से नियमित होने वाली घटाभाव की प्रतियोगिता घटत्व के सभी आश्रयों में रहती है और घटत्व से शून्य आश्रयों में नहीं रहती । इस प्रकार प्रकृत में प्रतियोगिता से न्यून तथा अधिक स्थान में न रहने वाले उसके नियामक धर्म का नाम अवच्छेदक है ।
व्यधिकरणधर्मावच्छिन्नाभाव - जिस अभाव की प्रतियोगिता अपने अवच्छेक धर्म के साथ नहीं रहती अर्थात् जिस अभाव की प्रतियोगिता अपने आश्रय में न रहनेवाले धर्म से अवच्छिन्न होती है उस अभाव को व्यधिकरणधर्मावच्छिन्नाभाव कहा जाता है । जैसे "घटत्वेन पटाभाव" व्यधिकरण-धर्मावच्छिन्नाभाव है क्योंकि उसकी प्रतियोगिता अपने आश्रय पट में न रहने वाले घटत्वधर्म से अवच्छिन्न है ।
इस अभाव की कल्पना सर्वप्रथम सोन्दड़नामक नैयायिक ने की थी और प्रतियोगितावच्छेदक से विशिष्ट प्रतियोगी के साथ अभाव के विरोध का नियम मानकर इस अभाव की केवलान्वयिता - सार्वत्रिकता स्थापित की थी । अर्थात् यह बताया था कि घटत्वेन पटाभाव का प्रतियोगी पट घटत्वरूप प्रतियोगितावच्छेद से विशिष्ट होकर कहीं नहीं रहता अतः कहीं भी अपने विरोधी के न रहने के कारण वह अभाव सर्वत्र रहता है । इस अभाव के विषय में विशेष विचार श्रीगङ्गेशोपाध्याय रचित "तत्त्वचिन्तामणि" के अनुमानखण्ड में व्याप्तिवाद के अन्तर्गत " व्यधिकरणधर्मावच्छिन्नाभावप्रकरण" और उसकी “माथुरी” तथा “दीधिति" टीकावों में और उस प्रकरण की “दोधिति” की “जागदीशी" एवं "गादाधरी" टीकाओं में किया गया है ।
इस अभाव पर विचार करते हुए जैन विद्वानों ने इसी के समान व्यधिकरणधर्मावच्छिन्नानुयोगिताक अभाव भी माना है। जिसका वर्णन " जलत्वेन पृथिव्यां गन्धो नास्ति – जलत्वावच्छेदेन पृथिवी में गन्ध का अभाव है" " पृथिवीत्वेन जले स्नेहो नास्ति-पृथिवीत्वावच्छेदेन जल में स्नेह का अभाव है" इन रूपों में किया गया है ।
विश्वं ह्यलीकमनुपाख्यमलं न बौद्ध ?
सोढुं विचारमिति जल्पसि यद्विचारात् । कः कीदृगेष इति पृष्ट इह त्वदीयै
द्वक्ति तद्बठर भौतविचारकञ्पम् ॥ ४६ ॥
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बौद्ध जगत् को अलीक -असत्, अनुपाख्य – अनिर्वचनीय और विचारायह — विचार करने पर उपपन्न न होने वाला, बताते हैं । किन्तु जैन जब