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________________ ( ६ ) अन्य नैयायिकों का मत है कि विभिन्न रूप वाले अवयवों से उत्पन्न होने वाले अवयवी में नील, पीत आदि अनेक रूप ही उत्पन्न होते हैं और वे उसमें व्याप्यवृत्ति भी होते हैं, अर्थात् नील, पीत आदि रूप उस द्रव्य के पीत, नील आदि भागों में भी रहते हैं। इनके मतानुसार एक द्रव्य में व्यापक भाव से रहने वाले नील, पीत आदि अनेक रूपों की समष्टि को ही चित्र कहा जाता है। इस मत में यह शंका होती है कि यदि नील रूप चित्र द्रव्य के पीत आदि भागों में भी रहता है तो उन भागों में नील रूप का दर्शन क्यों नहीं होता। इसका उत्तर उस मत में यह दिया जाता है कि नील, पीत आदि रूपों के साथ नील, पीत आदि अवयवों के द्वारा होने वाला चक्षु का सन्निकर्ष ही नील, पीत, आदि रूपों के प्रत्यक्ष का कारण होता है अतः चित्र द्रव्य के पीत भाग में नील रूप का प्रत्यक्ष नहीं हो सकता क्योंकि चित्र द्रव्य में यद्यपि नील, पीत आदि का अभाव नहीं रहता पर उसके पीत, नील अवयओं में नील, पीत आदि का अभाव तो रहता ही है, अतः जब चित्र द्रव्य के पीत भाग पर नेत्र की किरण पड़ती है तब पीत अवयव द्वारा ही चित्र द्रव्य के नील रूप के साथ चक्षु का सन्निकर्ष होता है न कि नील अवयव के द्वारा अतः उस द्रव्य के पीत भाग में नील रूप का दर्शन नहीं होता । कहने का तात्पर्य यह है कि जिस द्रव्य के जिस भाग में जैसा रूप रहता है उस भाग के द्वारा वैसे ही रूप का उस द्रव्य में प्रत्यक्ष हो सकता है क्योंकि रूप-प्रत्यक्ष और चक्षुः-सन्निकर्ष के उक्त कार्यकारणभाव से यही निष्कर्ष निकलता है। चित्र रूप के सम्बन्ध में जैनदर्शन का विचार यह है कि नील, पोत आदि विभिन्न रूप वाले अवयवों से निष्पन्न होने वाले द्रव्य में नीलत्व, पीतत्व आदि विभिन्न जातियों से आलिङ्गित एक रूप की ही उत्पत्ति होती है, अर्थात् एक ही रूप कथंचित् नील और कथंचित् पीत आदि भी होता है, इस प्रकार नीलत्व, पीतत्व आदि अनेक जातियों का कथंचित् आस्पद होने वाला रूप ही चित्र शब्द से व्यवहृत होता है। सांख्यः प्रधानमुपयंत्रिगुणं विचित्रां बौद्धो धियं विशदयन्नथ गौतमीयः । वैशेषिकश्च भुवि चित्रमनेकमेकं वाञ्छन्। मतं न तव निन्दति चेत्सलज्जः ॥ ४४ ॥ सांख्य सत्त्व, रजस् , और तमस इन तीन गुणों से अभिन्न एक प्रकृति का अस्तित्व मानता है, ये तीनों गुण एक दूसरे से भिन्न हैं, क्योंकि इनके कार्य प्रकाश, क्रिया और आवरण एक दूसरे से भिन्न हैं, परस्पर भिन्न पदार्थों की ७ न्या० ख०
SR No.022404
Book TitleJain Nyaya Khand Khadyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBadrinath Shukla
PublisherChowkhamba Sanskrit Series
Publication Year1966
Total Pages192
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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