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नवीन मत अथवा कपोलकल्पितमतों को प्रकट करके अनेक मुग्धजनों को अपने मायाजाल में फसाकर रसातल के भागी बना देते हैं फिर उक्त मुग्धों को उनके जाल से मुक्त होना अत्यन्त कठिन हो जाता है।
हमको अन्यमतावलम्बियों से बादानुवादं (धर्मचर्चा) करने पर यही प्रतीत हुआ कि अपने हठ का त्याग करना किसी को अच्छा मालूम नहीं होता। बड़े ही खेद की बात है कि जब विद्वानगण सत्य का परित्यागकर केवल हठपूर्वक अपने मन्तव्य ही को सिद्ध करना चाहते हैं तो उक्त विद्वानों की गणना किस वर्ग में हो सक्ती है यह पाठक स्वयं विचार लें। __ सत्य ग्रहण व असत्य का परित्याग करो ! इस प्रकार सब ही धर्मावलम्बी कहते हैं और सभा समाजों में अपने लम्बे २ व्याख्यानों को सुनाकर अपने मन की आह (ज्वाला) निकालते हैं किन्तु सत्य किस चिड़िया का नाम है इसका निर्णय किए विना ही निरर्थक प्रलाप करना ठीक नहीं, जब तक मनुष्य पक्षपात का चश्मा दूर नहीं करेगा तब तक वह सम्यक्द्रष्टा नहीं कहा जा सकता।
वाणी और अर्थ का सम्बन्ध अत्यन्त महत्व का है बहुधा विद्वान् लोग भी अपने विचारों को असंबद्धता और अस्पष्टता करके शब्दाडंबर द्वारा आच्छादन करने का प्रयत्न किया करते हैं और जैसी कल्पना मन में उत्पन्न हुई मुखद्वारा व लेखिनीद्वारा प्रकाशित हुए शब्द भी वैसे ही निकलते हैं चाहे संदिग्ध हों अथवा असंदिग्ध । सामान्य नियम ऐसा है कि जो विचार मनोगत होते हैं वही शब्दों में भी आ जाते हैं अपने मनोगत विचार व मुखद्वारा निर्गत होनेवाले उद्गार इन दोनों के बीच में नित्य सम्बन्ध हो या अनित्य हो परन्तु यह बात सत्य है कि जो विचार आधे या अस्पष्ट होते हैं उनके द्योतक शब्द भी वैसे ही होते हैं इसके अतिरिक्त यह भी सत्य अनुमान है कि जिसके भाषण में अर्थात् वाग्विलास में संदिग्धता होती है उसके विचारों में भी अवश्य संदिग्धता होती है अनेक वार ऐसा बनाव बनता है कि एक वा दो शब्द या वाक्य किसी ने एक स्थल पर पढ़े किंवा प्रसंग