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वन्दे वीरम् ।
- जगत्कर्तृत्वमीमांसा -
कर्ताऽस्ति कश्चिज्जगतः स चैकः
स सर्वगः स स्ववशः स नित्यः ॥
इमाः कुहेवाकविडम्बनाः स्युस्तेषां न येषामनुशासकस्त्वम् ॥ १ ॥ ( श्रीमान् हेमचन्द्राचार्यः )
इस संसार में प्रचलित अनेक मत मतान्तर हमारे दृष्टिगत होते हैं और सबही धर्मावलम्बी प्रायः यही सिद्ध करने में तत्पर होते हैं कि "प्राचीन धर्म हमारा ही है और हमारा ही धर्म सनातन से चला आता है तथा हमारे धर्म के अतिरिक्त अन्य मतमतान्तरों के तत्त्व युक्तिविकल हैं अर्थात् अन्य मतों की स्थापना हम से बहुत ही पीछे हुई है अतएव हमारे धर्म की स्पर्धा अन्य कोई भी धर्म नहीं कर सक्ता" ऐसा अभिमान अनेक विद्वानों के हृदय में भरा हुआ दिखाई देता है यदि वे निष्पक्षपात बुद्धि से अपने मन में विचार करेंगे तो पूर्वोक्त व्यर्थ हठ उनके हृदय में नहीं ठहर सकेगा ।
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जिस मनुष्य ने पूर्वपक्ष देखा हो और उत्तरपक्ष न देखा हो अथवा उत्तरपक्ष देखा हो और पूर्वपक्ष न देखा हो तो वह मनुष्य सर्वपक्षसम्पन्न नहीं कहा जा सक्ता और सच्छास्त्रवेत्ताओं की सभा में आदरणीय नहीं हो सक्ता ; इस समय प्रायः दुर्विदग्ध मनुष्य विशेष दिखलाई पड़ते हैं और वे अपनी दुर्विदग्धता दिखाते हुए हठात्
१ जगत् का कर्ता कोई है, वह एक, सर्वव्यापी, स्वतन्त्र, नित्य है ऐसी दुराग्रहरूपी विडम्बनाएँ उन्हीं को होती हैं जिनका प्रभु ! तू अनुशासक नहीं है।