________________ जैनतत्त्वदिग्दर्शन। यह वक्तृतास्वरूप ग्रन्थ, शास्त्रविशारद-जैनाचार्य श्रीविजयधर्मसूरि जी ने कृपाकरके कॉन्वेन्शन ऑफ इन्डियन रिलीजेन्स् कलकत्ता के प्रेसीडेन्ट हाईकोर्ट के भूतपूर्व जज बाबू शारदाचरण मित्र जी की प्रार्थनापर पूर्वोक्त सभा के लिये हिन्दी में लिखा था-और 9 अप्रैल 1909 ई० को उस सभा में पढ़ा भी गया। इस पुस्तक में प्रायः समस्त जैनशास्त्र का तत्त्व अभिनिविष्ट है / समय के प्रभाव से इतर की कथाही क्या ! जैनधर्मी भी अपने धर्म के सिद्धान्त को पूरा क्या ! अधूरा भी नहीं जानते; उनके लिये और सर्व साधारण जैनधर्मतत्त्वजिज्ञासुओं को यह बड़ा लाभदायक है। ____ इसमे संक्षेपरूप से सभी पदार्थों की उत्तमरीति से विवेचना की गई है और इसके विषय में जो समालोचनायें हुई हैं उनमें से दो एक का संक्षिप्त भाव यह है:-सरस्वती प्रयाग-अगस्त 1909 ई० 'कुछ दिन हुए कलकत्ते में एक धर्म-महासभा हुई थी। उसमें संसार के मुख्य मुख्य मतों और धर्मों पर कितनेही लेख पढ़े गये थे। जैन धर्म पर जो लेख पढ़ा गया था वह अब पुस्तकाकार प्रकाशित हुआ है। इसमें जैन धर्म के मुख्य मुख्य सिद्धान्तों का स्थूलरूप से हिन्दी में वर्णन है। ... इस छोटीसी पुस्तक में जैन धर्म का तत्त्वनिरूपण उत्तमता पूर्वक किया गया है। थोड़े में जिसे इस धर्म का सार जानना हो उसे...यह पुस्तक प्रकाशक से मँगाकर जरूर पढ़ना चाहिए।... इस पुस्तक के अन्त में पुस्तककर्ता ने अपनी शालीनता और नम्रता का दर्शक वीर-प्रार्थना पर एक पद्य दिया है ......" LUZAC'S ORIENTAL LIST & BOOK REVIEW OF MARCH --APRIL 09. Jaina-tattava-dig-darsana is the title of a monograph recently read at a Convention of Indian Religions in Calcutta by Vijayadharma Suri. The work is written in scholarly but lucid Hindi, and gives a succinct outline of Jain theology, doctrine, and religious practice, with a sufficient amount of detail. Nothing new is presented, but the essentials of Jainism are described clearly and attractively. The little work is likely to be of considerable use as a handbook of Jainism, and deserves to be welcomed. मूल्य 4 आना मात्र पता:-सा. हर्षचन्द भूराभाई. अंग्रेजी कोठी, बनारस सिटी.