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________________ ६४ रायचन्द्र नशास्त्रमालायाम् । प्रतिविशिष्टस्वखविषयव्यवसायितया खंडशः आकर्षति प्रतीयमानाखंडैकचिच्छक्तितया भावेंद्रियाणि ग्राह्यग्राहकलक्षणसंबंधप्रत्यासत्तिवशेन सह. संविदा परस्परमेकीभूतानि च चिच्छक्तेः स्वयमेवानुभूयमानासंगतया भावेंद्रियावगृह्यमाणान् स्पर्शादीनिंद्रियार्थांश्च सर्वथा स्वतः पृथक्करणेन विजित्योपरतसमस्तज्ञेयज्ञायकसंकरदोषत्वेनैकत्वे टंकोत्कीर्ण विश्वस्याप्यस्योपरि तरता प्रत्यक्षोद्योततया नित्यमेवांतःप्रकाशमानेनानपायिना स्वतः सिद्धेन परमार्थसता भगवता ज्ञानस्वभावेन सर्वेभ्यो द्रव्यांतरेभ्यः परमार्थतोतिरिक्तमात्मानं संचेतयते के ते । ये निश्चिताः निश्चयज्ञा इति । किंच ज्ञेयाः स्पर्शादिपंचेंद्रियविषयाः ज्ञायकानि स्पर्शनादिद्रव्येंद्रियभावेंद्रियाणि तेषां योसौ जीवेन सह संकरः संयोगः संबंधः स एव दोषः तं अपनेसे जुदाकर सब अन्य द्रव्योंसे भिन्न अपने आत्माको अनुभवता है वह निश्चयसे जितेंद्रिय है । कैसे हैं द्रव्येंद्रिय ? अनादि अमर्यादरूप बंधपर्यायके वशसे जिन कर समस्त स्वपरका विभाग नष्ट होगया है और जो शरीरपरिणामको प्राप्त हुए हैं अर्थात् आत्मासे ऐसे एक होरहे हैं कि भेद नहीं दीखता । उनको तो निर्मल भेदके अभ्यासकी चतुराईसे प्राप्त जो अंतरंगमें प्रगट अतिसूक्ष्म चैतन्य स्वभाव उसके अवलंबनसे ( सहायतासे ) अपनेसे जुदे किये हैं यही जीतना हुआ । कैसे हैं भावेंद्रिय ? जुदे जुदे विशेषोंको लिये हुए जो अपने विषय उनमें व्यापारपनेसे विषयोंको खंडखंड ग्रहण करते हैं अर्थात् ज्ञानको खंड खंडरूप जनाते हैं उनको प्रतीतिमें आती हुई अखंड एक चैतन्यशक्तिकर अपनेसे जुदे जानता है । इनका यही जीतना हुआ। इंद्रियोंके विषभूत पदार्थ कैसे हैं ? ग्राह्य ग्राहक स्वरूप संबंधीकी निकटताके वशसे अपने संवेदन (अनुभव) कर सहित परस्पर एक सरीखे होगये हों ऐसे दीखते हैं, उनको अपनी चैतन्य शक्तिके अपने आप अनुभवमें आता हुआ जो असंगपना ( अमिलमिलाप ) उसकर भावेंद्रियसे ग्रहण किये हुए स्पर्शादिक पदार्थोंको अपनेसे जुदा किया है । इनका यही जीतना । इसतरह इंद्रिय ज्ञानके और विषयभूत पदार्थों के ज्ञेय ज्ञायकका संकर नामा दोष आता था उसके दूर होनेसे आत्मा एकपनेमें टंकोत्कीर्ण स्थित हुआ । जैसे टांकीसे उकीरी पत्थरमें मूर्ति एकाकार जैसीकी तैसी ठहरती है उसीतरह ठहरा यह ऐसा कैसे मालूम हुआ? समस्त पदार्थोके ऊपर तरता जानता हुआ भी उनरूप नहीं होता प्रत्यक्ष उद्योतपनेकर नित्य ही अंतरंगमें प्रकाशमान, अविनश्वर, आपहीसे सिद्ध हुआ और परमार्थरूप ऐसा भगवान ज्ञानस्वभावकर सब अन्यद्रव्योंसे परमार्थकर जुदा जाना । क्योंकि ज्ञानस्वभाव अन्य अचेतनद्रव्योंमें नहीं है इसलिये सबसे अधिक जुदा ही है । ऐसें आत्माको जो जाने वह जितेंद्रिय जिन है । इसप्रकार एक निश्चयस्तुति तो यह हुई । यहां ज्ञेय तो इंद्रियों के विषयभूत पदार्थ और ज्ञायक आप आत्मा इन दोनोंका विषयोंकी आसक्ततासे अनुभव एकसा होता था सो भेदज्ञानकर भिन्नपना जाना तब ज्ञेय ज्ञायक संकर दोष दूर हुआ
SR No.022398
Book Titlesamaysar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManoharlal Shastri
PublisherJain Granth Uddhar Karyalay
Publication Year1919
Total Pages590
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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