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________________ ... समयसारः ।... ६३ इति शरीरे स्तूयमानेपि तीर्थकरकेवलिपुरुषस्य तदधिष्ठातृत्वेपि सुस्थितसांगत्वलावण्यादिगुणाभावात्स्तवनं न स्यात् ॥ ३०॥ अथ निश्चयस्तुतिमाह तत्र ज्ञेयज्ञायकसंकरदोषपरिहारेण तावत् ; जो इंदिये जिणत्ता णाणसहावाधिअं मुणदि आदं। तं खलु जिदिदियं ते भणंति जे णिच्छिदा साहू ॥३१॥ या इंद्रियाणि जित्वा ज्ञानस्वभावाधिकं जानात्यात्मानं । तं खलु जितेंद्रियं ते भणंति ये निश्चिताः साधवः ॥ ३१॥ यः खलु निरवधिबंधपर्यायवशेन प्रत्यस्तमितसमस्तखपरविभागानि निर्मलभेदाभ्यासकौशलोपलब्धांतःस्फुटातिसूक्ष्मचित्स्वभावावष्टंभबलेन शरीरपरिणामापन्नानि द्रव्येद्रियाणि कृता भवति तथा शुक्लादिदेहगुणस्तूयमानेप्यनंतज्ञानादिकेवलिगुणाः स्तुता न भवंतीत्यर्थः । इति निश्चयव्यवहाररूपेण गाथाचतुष्टयं गतं ॥ ३० ॥ अथानंतरं यदि देहगुणस्तवनेन निश्चयस्तुतिर्न भवति तर्हि कीदृशी भवतीति पृष्टे सति द्रव्येद्रियभावेंद्रियपचेंद्रियविषयान् स्वसंवेदनलक्षणज्ञानेन जित्वा योसौ शुद्धमात्मानं संचेतयते स जिन इति जितेंद्रिय इति सा चैव निश्चयस्तुतिपरिहारं ददाति । जो इंदिये जिणत्ता णाणसहावाधिअं मुणदि आदं यः कर्ता द्रव्येंद्रियभावेंद्रियपंचेंद्रियविषयान् जित्वा शुद्धज्ञानचेतनागुणेनाधिकं परिपूर्ण शुद्धात्मानं मनुते जानात्यनुभवति संचेतयति तं खलु जिदिदियं ते भणंति जे णिच्छिदा साहू तं पुरुषं खलु स्फुटं जितेद्रियं भणंति ते साधवः । जिनेंद्रका रूप ( मूर्ति ) सबसे उत्कृष्ट जयवंत हो । कैसा है ? हमेशा अविकार है अच्छी तरह सुखरूप सर्वांग जिसमें स्थित है, अपूर्व है, स्वाभाविक अर्थात् जन्मसे ही लेकर जिसमें लावण्य उत्पन्न है यानी सवको प्रिय लगता है, समुद्र की तरह क्षोभ रहित है चलाचल नहीं है । इस प्रकार शरीरकी स्तुति कही । यद्यपि तीर्थंकर केवली पुरुषके शरीरका अधिष्ठातापना है तो भी सुस्थित सर्वांगपना लावण्यपना आत्माका गुण नहीं है । इसलिये तीर्थकर केवली पुरुषके इन गुणोंका अभाव होनेसे उनकी स्तुति नहीं हो सकती ॥ ३०॥ अब जिसतरह तीर्थंकर केवलीकी निश्चयस्तुति हो सकती है उसरीतिसे कहते हैं उसमें भी पहले ज्ञेय ज्ञायकके संकरदोषका परिहारकर स्तुति कहते हैं;- [यः] जो [इंद्रियाणि ] इंद्रियोंको [ जित्वा ] जीतकर [ज्ञानस्वभावाधिकं ] ज्ञानस्वभावकर अन्यद्रव्यसे अधिक [ आत्मानं ] आत्माको [जानाति] जानता है [तं खलु ] उसको नियमसे [ये निश्चिताः साधवः ] जो निश्चयनयमें स्थित साधुलोक हैं [ते] वे [जितेंद्रिय ] जितेंद्रिय ऐसा [ भणंति] कहते हैं ।। टीका-जो मुनि द्रव्येंद्रिय, भावेंद्रिय तथा इंद्रियोंके विषयोंके पदार्थ इन तीनोंको ही
SR No.022398
Book Titlesamaysar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManoharlal Shastri
PublisherJain Granth Uddhar Karyalay
Publication Year1919
Total Pages590
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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