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________________ ६१ समयसारः । स्तवनेन परमार्थतोऽतत्स्वभावस्यापि तीर्थकरकेवलिपुरुषस्य व्यवहारमात्रेणैव शुक्ललोहितस्तीर्थकर केवलिपुरुष इत्यस्ति स्तवनं । निश्चयनयेन तु शरीरस्तवेन नात्मस्तवनमनुपपन्नमेव ॥ २८ ॥ तथाहि; — तं णिच्छये ण जुज्जदि ण सरीरगुणा हि होंति केवलिणो । केवलिगुणो णदि जो सो तच्चं केवलिं थुणदि ॥ २९ ॥ तन्निश्चयेन न युज्यते न शरीरगुणा हि भवंति केवलिनः । केवलिगुणान् स्तौति यः स तत्त्वं केवलिनं स्तौति ॥ २९ ॥ यथा कार्त्तस्वरस्य कलधौतगुणस्य पांडुरत्वस्याभावान्न निश्चयतस्तद्व्यपदेशेन व्यपदेशः कार्त स्वरगुणस्य व्यपदेशेनैव कार्तस्वरस्य व्यपदेशात्, तथा तीर्थकरकेवलिपुरुषस्य शरीरवंदितो मया केवली भगवानिति । यथा सुवर्णरजतैकत्वे सति शुक्तं सुवर्णमिति व्यवहारो न निश्चयः तथा शुक्लरक्तोत्पलवर्णः केवलिपुरुष इत्यादिदेहस्तवने व्यवहारेणात्मस्तवनं भवति न निश्वययेनेति तात्पर्यार्थः ॥ २८ ॥ अथ निश्चयनयेन शरीरस्तवने केवलिस्तवनं न भवतीति दृढयति; — तं णिच्छये ण जुज्जदि तत्पूर्वोक्तदेहस्तवने सति केवलिस्तवनं निश्चयेन न युज्यते । कथमिति चेत् । ण सरीरगुणा हि होंति केवलिणो यतः कारणाच्छरीरगुणा शुक्लकृष्णादयः केवलिनो न भवंति । तर्हि कथं केवलिनः स्तवनं भवति ? केवलिगुणो णदि जो सो तच्चं केवलिं श्रुणदि केवलिगुणान् अनंतज्ञाना - जड़की स्तुतिका कहां फल है । उसका उत्तर । व्यवहारनय सर्वथा असत्यार्थ नहीं है निश्चयको प्रधानकर असत्यार्थ कही है छद्मस्थ ( अल्पज्ञानी ) को अपना परका आत्मा साक्षात् दीखता नहीं है शरीर ही दीखता है उसकी शांतरूप मुद्राको देख अपने भी शांतभाव हो जाते हैं । ऐसा उपकार जान शरीर के आश्रयसे भी स्तुति करता है तथा शांतमुद्रा देख अंतरंग में वीतरागभावका निश्चय होता है यह भी उपकार है ॥ २८ ॥ ऊपर की बातको गाथासे कहते हैं; - [ तत् ] वह स्तवन [ निश्चये ] निश्चय में [ न युज्यते ] ठीक नहीं है [ हि ] क्योंकि [ शरीरगुणाः ] शरीरके गुण [ केवलिनः ] केवलीके [न भवंति ] नहीं हैं । [ यः ] जो [ केवलि - गुणान् ] केवीके गुणोंकी [ स्तौति ] स्तुति करता है [ स ] वही [तत्त्वं ] परमार्थसे [ केवलिनं ] केवलीकी [ स्तौति ] स्तुति करता है । टीका - जैसे सुवर्ण में चांदी के सफेद गुणका अभाव है इसलिये निश्चय से सफेदपनेके नामसे सोंनेका नाम नहीं बनता, सुवर्णके गुण जो पीतपना आदि हैं उनके ही नामसे सुवर्णका नाम होता है । उसीतरह तीर्थंकर केवली पुरुषमें शरीर के शुद्ध रक्तपना आदि गुणोंका अभाव है, इसलिये
SR No.022398
Book Titlesamaysar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManoharlal Shastri
PublisherJain Granth Uddhar Karyalay
Publication Year1919
Total Pages590
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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