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________________ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् । गानुपयोगस्वभावयोः कनककलधौतयोः पीतपांडुरत्वादिस्वभावयोरिवात्यंतव्यतिरिक्तत्वेनैकार्थत्वानुपपत्तेः नानात्वमेव हि किल नयविभागः । ततो व्यवहारनयेनैव शरीरस्तवने नात्मस्तवनमुपपन्नं ॥२७॥ तथाहि; इणमण्णं जीवादो देहं पुग्गलमयं थुणित्तु मुणी। मण्णदि हु संधुदो वंदिदो मए केवली भयवं ॥२८॥ इदमन्यत् जीवादेहं पुद्गलमयं स्तुत्वा मुनिः। मन्यते खलु संस्तुतो वंदितो मया केवली भगवान् ॥ २८॥ यथा कलधौतगुणस्य पांडुरत्वस्य व्यपदेशेन परमार्थतोऽतत्स्वभावस्यापि कार्तस्वरस्य व्यवहारमात्रेणैव पांडुरं कार्त्तखरमित्यस्ति व्यपदेशः। तथा शरीरगुणस्य शुक्ललोहितत्वादेः कदाचित्काले एकार्थः एको भवति । यथा कनककलधौतयोः समावर्त्तितावस्थायां व्यवहारेणैकत्वेपि निश्चयेन भिन्नत्वं तथा जीवदेहयोरिति भावार्थः । ततःकारणात् व्यवहारनयेन देहस्तवनेनात्मस्तवनं युक्तं भवतीति नास्ति दोषः ॥ २७ ॥ तथाहि;-इगमण्णं जीवादो देहं पुग्गलमयं थुणित्तु मुणी इदमन्यद्भिन्नं जीवात्सकाशादेहं पुद्गलमयं स्तुत्वा मुनिः । मण्णदि हु संथुदो वंदिदो मए केवली भयवं पश्चाद्वयवहारेण मन्यते संस्तुतो ही है । ऐसा यह प्रगट नयविभाग है इसकारण व्यवहारनयकर शरीरकी स्तुति करनेसे ही आत्माकी स्तुति होसकती है। भावार्थ-व्यवहारनय तो आत्मा और शरीरको एक कहती है और निश्चयनय भिन्न कहती है इसलिये ब्यवहारनयकर शरीरके स्तवन करनेसे आत्माका स्तवन माना जाता है ॥ २७ ॥ · यही बात आगेकी गाथामें कहते हैं;-[ जीवात् अन्यं] जीवसे भिन्न [इमं पुद्गलमयं देहं ] इस पुद्गलमयी देहकी [स्तुत्वा ] स्तुतिकरके [ मुनिः] साधु [ मन्यते खलु ] असलमें ऐसा मानता है कि [ मया ] मैंने [ केवलीभगवान् ] केवलीभगवानकी [स्तुतः ] स्तुति की और [ वंदित ] वंदना ( नमस्कार ) की ॥ टीका-जैसे रूपा ( चांदी ) का गुण श्वेतपना उसके नामसे सुवर्णको भी श्वेत नामसे कहते हैं सो व्यवहारमात्रसे कहते हैं। परमार्थ ( वास्तव ) में विचाराजाय तब सुवर्णका स्वभाव सफेद नहीं है पीला है उसी तरहसे शुक्ल रक्तपना आदिक शरीरके गुण हैं उसके स्तवनसे तीर्थकर केवली पुरुषोंको "शुक्ल हैं रक्त हैं" ऐसा स्तवनद्वारा कहाजाता है सो यह स्तवन व्यवहारमात्रकर है । परमार्थसे विचाराजाय तब शुक्लरक्तपना तीर्थकर केवलीपुरुषका स्वभाव नहीं है। इसकारण निश्चयनयकर शरीरका स्तवन करनेसे आत्माका स्तवन नहीं बन सकता । यहां कोई प्रश्न 'करे कि व्यवहारनय तो असत्यार्थ कहा है और शरीर जड़ है सो व्यवहारके आश्रय
SR No.022398
Book Titlesamaysar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManoharlal Shastri
PublisherJain Granth Uddhar Karyalay
Publication Year1919
Total Pages590
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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