SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 581
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ५६८ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् । [वक्तव्य यस्माद्वैतमभूत्पुरा स्वपरयोर्भूतं यतोऽत्रांतरं रागद्वेषपरिग्रहे सति यतो जातं क्रियाका अत्र ग्रंथे प्रचुरेण पदानां संधिर्न कृता वाक्यानि च भिन्नभिन्नानि कृतानि सुखबोधार्थ । तेन कारणेन लिंग-वचन-क्रिया-कारक-सन्धि-समास-विशेष्य-विशेषण-वाक्यसमाप्त्यादिकं दूषणं न ग्राह्यं विवेकिभिः । शुद्धात्मादितत्त्वप्रतिपादनविषये यदज्ञानात् किंचिद्विस्मृतं तदपि क्षमित__ संस्कृतटीकाकारका वक्तव्य-अब संस्कृत टीका पूर्णकर अमृतचंद्र आचार्य कहते हैं कि आत्मामें परसंयोगसे अनेक भाव होते हैं उनका वर्णन ग्रंथोंमें हैं सो सभी वर्णन इस विज्ञानघनमें मग्न हुए कुछ भी नहीं दीखते-यस्मात् इत्यादि । अर्थजिस परसंयोगरूप बंधपर्याय जनित अज्ञानसे प्रथम तो अपना और परका द्वैतरूप एकभाव हुआ, फिर उस द्वैतपनेसे अपने स्वरूप में अंतर हुआ अर्थात् बंधपर्यायको ही आप जाना, उस अंतरके पड़नेसे रागद्वेषका परिग्रहण हुआ, उसके होनेसे क्रिया और कर्ता कर्म आदि कारकोंसे भेद पड़ा, उस क्रिया कारकके भेदकर आत्माकी अनुभूति है वह क्रियाके सब फलको भोगती खेद खिन्न हुई । ऐसा अज्ञान है । सो अब ज्ञान हुआ तब उस विज्ञानघनके समूहमें मग्न होगया । अब इसको देखा जाय तो कुछ भी नहीं है यह प्रगट अनुभवमें आता है ॥ भावार्थ-अज्ञान है वह परसंयोगसे ज्ञान ही अज्ञानरूप परिणमा था कुछ दूसरा तो वस्तु था नहीं । सो अब ज्ञानरूप परिणमा सब कुछ भी न रहा । उस समय इस अज्ञानके निमित्तसे राग द्वेष कर्ता कर्म सुख दुःख आदि भाव होते थे वे भी विलय गये एक ज्ञान ही रहगया। तीनकालवर्ती अपने परके सब भावोंको आत्मा ज्ञाता द्रष्टा हुआ देखा करे ।। आगे अमृतचंद्र आचार्य इस प्रथ करनेके अभिमानरूप कषायको दूर करते हुए यथार्थ कहते हैं-वशक्ति इत्यादि अर्थ-यह समय अर्थात् आत्मवस्तु तथा समयप्राभृत नाम शास्त्र उसका व्याख्यान वा यह आत्मख्याति नाम टीका शब्दोंकर कीगई है । कैसे हैं शब्द ? अपनी शक्तिकर ही अच्छीतरह कहा है वस्तुका यथार्थ स्वरूप जिन्होंने । निज आत्मस्वरूप अमूर्तीक ज्ञानमात्र उसमें गुप्त होनेवाले (प्रवेश करनेवाले ) मुझ अमृतचंद्रसूरिका कुछ भी कर्तव्य नहीं है ॥ भावार्थ-शब्द है वह तो पुद्गल है सो पुरुषके निमित्तसे वर्णपद वाक्यरूप परिणमता है। सो इनमें वस्तुके स्वरूपके कहनेकी शक्ति स्वयमेव है क्योंकि शब्द और अर्थका वाच्यवाचकसंबंध है सो द्रव्यश्रुतकी रचना शब्दको ही करना संभवती है । आत्मा है सो अमूर्तीक व ज्ञानस्वरूप है इसलिये मूर्तीक पुद्गलकी रचना कैसे करे इसलिये आचार्यने ऐसा कहा है कि यह समयप्राभृतकी टीका शब्दोंकर कीगई है. मैं तो अपने स्वरूपमें लीन हूं मेरा कर्तव्य इसमें नहीं है । ऐसा कहनेसे उद्धतपनेका त्याग भी आता है । तथा निमित्त नैमित्तिक व्यवहारकर ऐसा ही कहते हैं कि विवक्षित कार्य उस पुरुषने किया, इस न्यायकर अमृतचंद्र आचार्यकृत यह टीका है ही।
SR No.022398
Book Titlesamaysar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManoharlal Shastri
PublisherJain Granth Uddhar Karyalay
Publication Year1919
Total Pages590
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy