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________________ परिशिष्टम् ] समयसारः। ५६३ एकः ॥ २६७ ॥ चित्पिडचंडिमविलासिविकासहासशुद्धप्रकाशभरनिर्भरसुप्रभातः । आनंदसुस्थितसदास्खलितैकरूपस्तस्यैव चायमुदयत्यचलार्चिरात्मा ॥ २६८ ॥ स्याद्वाददीपितलसन्महसि प्रकाशशुद्धस्वभावमहिमन्युदिते मयीति । किं बंधमोक्षपथपातिभिरन्यभावनिज्ञानमात्र अपने स्वरूपको पाके साधक हुए सिद्ध होते हैं। और जो ज्ञानमात्र अपनेको नहीं पाते वे संसारमें भ्रमते हैं। अब २६७ वें काव्यसे कहते हैं कि वे भूमिका इसतरह पाते हैं-स्मादाद इत्यादि । अर्थ--जो पुरुष स्याद्वादन्यायका प्रवीणपना और निश्चल व्रतसमितिगुप्तिरूप संयम इन दोनोंकर अपने ज्ञानस्वरूप आत्मामें उपयोग लगाता हुआ आत्माको निरंतर भावता है वही पुरुष ज्ञाननय और क्रियानयकर उन दोनों में परस्पर हुआ जो तीव्र मैत्रीभाव उसका पात्रभूत हुआ इस निज भावमयी भूमिकाको पाता है ॥ भावार्थ-जो ज्ञाननयको ही ग्रहण कर क्रियानयको छोड़ता है वह प्रमादी स्वच्छंद हुआ इस भूमिको नहीं पाता । और जो क्रियानयको ही ग्रहणकर ज्ञाननयको नहीं जानता वह भी शुभ कर्मसे संतुष्ट हुआ इस निष्कर्म भूमिकाको नहीं पाता। तथा जो ज्ञान पाकर निश्चल संयमको अंगीकार करते हैं उनके ज्ञाननयके और क्रियानय के परस्पर अत्यंत मित्रता होती है वे ही इस भूमिकाको पाते हैं । इन दोनों नयोंके ग्रहण त्यागका स्वरूप व फल पंचास्तिकाय ग्रंथके अंतमें कहा है वहांसे जानना ॥ अब २६८ वें काव्यसे कहते हैं कि जो इस भूमिकाको पाता है वही आत्माको पाता है-चित्पिड इत्यादि । अर्थ-जो पुरुष पूर्वोक्तप्रकार भूमिकाको पाता है उसी पुरुषके यह आत्मा उदय होता है। कैसा है आत्मा ? चैतन्यपिंडका निरर्गल विलास करनेवाला जो प्रफुल्लित होना उसरूप जिसका फूलना है, शुद्ध प्रकाशके समूहकर उत्तम प्रभातके समान उदयरूप है, आनंदकर अच्छी तरह ठहरा सदा नहीं चिगता है एकरूप जिसका, जिसकी ज्ञानरूप दीप्ति अचल है । ऐसा है ॥ भावार्थयहां चिपिंड इत्यादि विशेषणसे तो अनंत दर्शनका प्रगट होना बतलाया है, अचल शुद्धप्रकाश इत्यादि विशेषणसे अनंत ज्ञानका प्रगट होना जताया है, आनंदसुस्थित इत्यादि विशेषणसे अनंत सखका प्रगट होना जताया है और अचलाचि इस विशेषणसे अनंत वीर्यका प्रगट होना जतलाया है । पूर्वोक्त भूमिके आश्रयसे ऐसा आत्माका उदय होता है ॥ अब २६९ वें काव्यसे कहते हैं कि ऐसा ही आत्मस्वभाव हमारे भी प्रगट होवे-स्याद्वाद इत्यादि । अर्थ-स्याद्वादकर प्रकाशरूप हुआ है लहलहाट करता तेजःपुंज जिसमें, और जिसमें शुद्ध स्वभावकी महिमा है ऐसा ज्ञानप्रकाश मुझमें उदय होनेसे बंध मोक्षके मार्गसे पटकनेवाले अन्य भावोंकर क्या साध्य है? मेरे तो केवल अनंत चतुष्टयरूप यह अपना स्वभाव ही निरंतर उदयरूप हुआ स्फुरायमान होवे ॥ भावार्थस्याद्वादकर यथार्थ आत्मज्ञान होने वाद इसका फल पूर्ण आत्माका प्रगट होना है। सो मोक्षका इच्छक पुरुष यही प्रार्थना करता है कि मेरा पूर्ण स्वभाव आत्मा उदय हो । ४. १ शुद्धप्रकाशभरेण निर्भरमत्यंतं शुद्धो भातः सुष्ठो उद्दीप्तः। . .
SR No.022398
Book Titlesamaysar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManoharlal Shastri
PublisherJain Granth Uddhar Karyalay
Publication Year1919
Total Pages590
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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