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________________ ५६२ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् । [परिशिष्टम् ज्ञानिनो मिथ्याचरित्राश्च भवंतोऽत्यंतमुपायोपेयभ्रष्टा विभ्रमंत्येव । “ये ज्ञानमात्रनिजभावमयीमकंपां भूमिं श्रयंति कथमप्यपनीतमोहाः । ते साधकत्वमधिगम्य भवंति सिद्धा मूढास्त्वमूमनुपलभ्य परिभ्रमंति ॥ २६६ ॥ स्याद्वादकौशलसुनिश्चलसंयमाभ्यां यो भावयत्यहरहः स्खमिहोपयुक्तः । ज्ञानक्रियानयपरस्परतीत्रमैत्रीपात्रीकृतः श्रयति भूमिमिमां स क्योंकि इस आत्माके अनादिसे लेकर मिथ्यादर्शन मिथ्याज्ञान मिथ्या चारित्रोंकर अपने स्वरूपसे च्युत होनेसे संसारमें भ्रमते हुएके अच्छीतरह निश्चल ग्रहण किया जो व्यवहार सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्र उसके परिपाक ( पचना ) के बढनेकी परंपराकर अनुक्रमसे अपने स्वरूपमें अपनेको आरोपण करनेबालेके अंतर्मग्न निश्चय सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रके विशेषपनेकर साधकरूप है । उसीतरह बढनेकी हदको प्राप्त हुआ जो रत्नत्रय उसके अतिशयकर प्रवर्ता जो सब कर्मोंका नाश उसकर प्रज्वलित ( दैदीप्यमान ) और फिर नहीं चिगै ऐसे निर्मल स्वभावपनेकर सिद्धरूप है। इन साधक सिद्ध दोनों भावोंकर स्वयमेव आप परिणमता जो एक ज्ञानमात्र भाव वही उपाय उपेयभावको साधता है ॥ भावार्थ-यह आत्मा अनादि कालसे मिथ्यादर्शन ज्ञान चारित्रसे संसारमें भ्रमता है । जब व्यवहार सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रको निश्चल अंगीकार करे तव अनुक्रमसे अपने स्वरूपके अनुभवकी वृद्धि करता निश्चय सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्रकी पूर्णताको प्राप्त होय तब तक तो साधक रूप है । और निश्चय सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्रकी पूर्णताकर सब कर्मों का नाश हो तब साक्षात् मोक्ष होता है वही सिद्धरूप भाव है । सो इन दोनों भावरूप ज्ञानका ही परिणाम है वही उपायोपेय भाव है । इसतरह दोनों ही भावोंमें ज्ञानमात्रका अनन्यपना है अन्यपना नहीं है । उसकर निरंतर नहीं चिगता जो एक वस्तु उसके निष्कंप परिग्रहणसे उसीकाल मोक्षके चाहनेवाले पुरुषोंके अनादि संसारसे लेकर कभी जिन्होंने नहीं पायी ऐसी भूमिका लाभ इसप्रकार होता है इसलिये वे सत्पुरुष वहां सदा काल निश्चल हुए, आपसे ही क्रमरूप और अक्रमरूप प्रवर्ते अनेक धर्मोंकी मूर्ति हुए, साधक भावसे जिसकी उत्पत्ति है ऐसे परमप्रकर्षकी हदरूप सिद्ध भावके पात्र होते हैं । और अनेक धर्म जिसमें गर्भित हैं ऐसे ज्ञानमात्र एक भावस्वरूप ऐसी भूमिको जो नहीं पाते वे नित्य अज्ञानी हुए ज्ञानमात्रभावको अपने स्वरूपकर नहीं होना और पररूपकर होना देखते श्रद्धान करते जानते हुए आचरते हुए मिथ्यादृष्टि हुए मिथ्याज्ञानी हुए मिथ्या चारित्री हुए अत्यंत उपायोपेय भावसे भ्रष्ट हुए संसारमें भ्रमते ही रहते हैं ।। अब इस अर्थका कलशरूप २६६ वां काव्य कहते हैं-ये ज्ञान इत्यादि । अर्थ-जिनका किसीतरह अज्ञान ( मिथ्यात्व ) दूर होगया है ऐसे जो भव्यपुरुष ज्ञानमात्र निजभावमयी निश्चल भूमिकाको आश्रय करते हैं वे पुरुष साधकपनेको अंगीकारकर सिद्ध होते हैं । और जो मोही (अज्ञानी-मिथ्यादृष्टि ) हैं वे इस भूमिकाको न पाकर संसारमें भ्रमते हैं । भावार्थ-जो पुरुष गुरूके उपदेशसे तथा स्वयमेव काल लब्धिको पाकर मिथ्यात्वसे रहित होते हैं वे .
SR No.022398
Book Titlesamaysar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManoharlal Shastri
PublisherJain Granth Uddhar Karyalay
Publication Year1919
Total Pages590
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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