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अधिकारः ९] समयसारः।
४६३ ज्ञानं भवदात्मैव भवति इति तत्त्वसंबंधे जीवति चेतयिता पुद्गलादेर्भवन् पुद्गलादेरेव भवेत्, एवं सति चेतयितुः खद्रव्योच्छेदः । नच द्रव्यांतरसंक्रमस्य पूर्वमेव प्रतिषिद्धत्वा
व्यस्यास्त्युच्छेदः। ततो न भवति चेतयिता पुद्गलादेः। यदि न भवति चेतयिता पुद्गलादेस्तर्हि कस्य चेतयिता भवति ? चेतयितुरेव चेतयिता भवति । ननु कतरोन्यश्वेतयिता चेतयितुर्यस्य चेतयिता भवति ? न खल्वन्यश्चेतयिता चेतयितुः, किंतु स्वस्वाम्यंशावेवान्यौ। किमत्र साध्यं स्वस्खाम्यंशव्यहारेण ? न किमपि । तर्हि न कस्यापि ज्ञायकः। ज्ञायको ज्ञायक एवेति निश्चयः। किंच सेटिकात्र तावच्छेतगुणनिर्भरस्वभावं त्तिकादृष्टांतेन परिग्रहादिकं परद्रव्यं व्यवहारेण विरमति त्यजति न च परद्रव्येण सह तन्मयो भवति । स कः कर्ता ? ज्ञातात्मा । केन कृत्वा त्यजति ? स्वकीयनिर्विकल्पसमाधिपरिणामेनेति तृतीयगाथा गता । तथैव च तेनैव श्वेतमृत्तिकादृष्टांतेन जीवादिकं परद्रव्यं व्यवहारेण श्रद्दधाति न च परद्रव्येण सह तन्मयो भवति । स कः कर्ता ? सम्यग्दृष्टिः । केन कृत्वा ? स्वहारकर क्या साध्य है ? कुछ भी नहीं यह निश्चय है। अब इसीतरह चारित्रको भी कहते हैं-वहां जैसे सेटिका प्रथम ही जिसका स्वभाव श्वेतगुणकर भरा है ऐसा द्रव्य है उसके व्यवहारकर श्वेत करने योग्य कुटी आदि परद्रव्य है। अब यहां दोनोका परमार्थसे संबंध विचारते हैं । श्वेत करने योग्य कुटी आदि परद्रव्यके श्वेत करनेवाली सेटिका है या नहीं ? जो सेटिका कुटी आदिकी है ऐसा मानिये तो यह न्याय है कि जो जिसका हो वह वही है अन्य नहीं है । जैसे आत्माका ज्ञान हुआ आत्मा ही है अन्यद्रव्य नहीं है । ऐसे परमार्थरूप तत्त्व संबंधको जीवता विद्यमान होनेपर सेटिका कुटी आदिकी हुई कुटी आदि ही होगी । ऐसा होनेपर सेटिकाके स्वद्रव्यका उच्छेद हो जायगा सो द्रव्यका उच्छेद होता नहीं। क्योंकि अन्य द्रव्यको पलटकर अन्य द्रव्य होनेका निषेध पहले कर चुके हैं । इसलिये सेटिका कुट्यादिककी नहीं है। वहां पूछते हैं कि कुट्यादिकी नहीं है तो कोंनकी सेटिका है ? उसका उत्तर-सेटिकाकी ही सेटिका है। फिर पूछते हैं कि वह दूसरी सेटिका कोंनसी है जिसकी यह सेटिका है । उसका उत्तर-इस सेटिकासे अन्य सेटिका तो नहीं है । तो क्या है ? स्वस्वामि अंश हैं वे ही अन्य हैं । वहां कहते हैं स्वस्वामि अं. शकर निश्चय नयमें क्या साध्य है ? कुछ भी नहीं । तब यह ठहरा कि सेटिका अन्य किसीकी भी नहीं है सेटिका से टिका ही है ऐसा निश्चय है । जैसा यह दृष्टांत है वैसा दार्टीतिक अर्थ है । चेतयिता आत्मा है वह प्रथम ही ज्ञान दर्शन गुणकर भरा जिसका स्वभाव परके त्यागरूप है ऐसा द्रव्य है उसके व्यवहारकर त्यागने योग्य पुद्गल आदि परद्रव्य है । अब यहां दोनोंके परमार्थतत्त्वरूप संबंध विचारते हैं यागने योग्य पुद्गल आदि परद्रव्यके त्यागनेवाला चेतयिता है या नहीं ? जो चेतयिता पुगल आदि पर