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अधिकारः ९]
समयसारः। सुणु णिच्छयस्स वयणं परिणामकयं तु जं होई ॥ ३५३ ॥ जह सिप्पिओ उ चिट्ठ कुव्वइ हवइ य तहा अणण्णो से। तह जीवोवि य कम्मं कुव्वइ हवइ य अणण्णो से ॥ ३५४ ॥ जह चिटुं कुव्वतो उ सिपिओ णिच दुक्खिओ होई। . तत्तो सिया अणण्णो तह चेहँतो दुही जीवो ॥ ३५५ ॥
यथा शिल्पिकस्तु कर्म करोति न च स तु तन्मयो भवति । तथा जीवोऽपि च कर्म करोति न च तन्मयो भवति ॥ ३४९ ॥ यथा शिल्पिकस्तु करणैः करोति न स तन्मयो भवति । तथा जीवः करणैः करोति न च तन्मयो भवति ॥ ३५० ॥
पूर्वोक्तप्रकारेण गाथाचतुष्टयेन द्रव्यकर्मकर्तृ-वभोक्तृत्वरूपस्य व्यवहारनयस्य दर्शनं दृष्टांत उदाहरणं हे शिष्य ! वक्तव्यं व्याख्येयं कथनीयं समासेन संक्षेपेण सुणु णिच्छयस्स वयणं परिणामकदं तु जं हवदि इदं त्वग्रे वक्ष्यमाणं निश्चयस्य वचनं व्याख्यानं शृणु, कथंभूतं ? परिणामकृतं रागादिविकल्पेन निष्पादितमिति । जह सिप्पिओ दु चेडे कु
कहने योग्य है [ तु ] और [ यत् ] जो [ निश्चयस्य ] निश्चयके [ वचनं] वचन हैं वे [ परिणामकृतं ] अपने परिणामों से किये [ भवति ] होते हैं [शृणु ] उनको सुनो । [ यथा] जैसे [शिल्पिकः] शिल्पी [चेष्टां करोति ] अपने परिणामस्वरूप चेष्टारूप कर्मको करता है [तु च ] परंतु [ तस्या अनन्यः तथा ] वह उस चेष्टासे जुदा नहीं [ भवति ] होता है तन्मय है [ तथा ] उसीतरह [ जीवोपि च ] जीव भी [ कर्म ] अपने परिणामस्वरूप चेष्टारूप कर्मको [करोति ] करता है [ तस्मात् ] उस चेष्टाकर्मसे [ अनन्यः भवति ] अन्य नहीं है तन्मय है । [ यथा तु ] जैसे [ शिल्पिकः ] शिल्पी [चेष्टां कुर्वाण: ] चेष्टा करता हुआ [ नित्यःखितो भवति ] निरंतर दुःखी होता है [ तस्माच ] उस दुःखसे [ अनन्यः स्यात् ] जुदा नहीं है तन्मय है [तथा ] उसीतरह [ जीवः ] जीव भी [चेष्टमानः दुःखी ] चेष्टा करता हुआ दुःखी होता है । टीका-जैसे निश्चयकर सुनार आदि शिल्पी कुंडल आदि परद्रव्य के परिणामस्वरूप कर्मको करता है, हथोड़ा आदि परद्रव्यके परिणामस्वरूप करणोंकर करता है, हथौड़ा आदि परद्रव्यके परिणामस्वरूप करणों को ग्रहण करता है, और कुंडल आदि कर्मका फल प्रामधन आदि परद्रव्य के परिणामस्वरूपको पाता है उनको भोगता है तो भी वे सभी भिन्न भिन्न द्रव्य हैं उनसे अन्य है इसलिये उनसे तन्मय नहीं होता, इसकारण वहां निमित्त नैमित्तिक भावमात्रकर ही उनके कर्ता कर्मपनेका और भोक्ता भोग्यपनेका व्यवहार है । उसीतरह