SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 456
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अधिकारः ९] समयसारः। कर्मोदयमंतरेण तदनुपपत्तेः । यत एवं समस्तमपि स्वतंत्रं कर्म करोति कर्म ददाति कर्म हरति च ततः सर्व एव जीवाः नित्यमेवैकांतेनाकार एवेति निश्चिनुमः । किंच-श्रुतिरप्येनमर्थमाह, पुंवेदाख्यं कर्म स्त्रियमभिलपति स्त्रीवेदाख्यं कर्म पुमांसमभिलषति इति वाक्येन कर्मण एव कर्माभिलाषकर्तृत्वसमर्थनेन जीवस्याब्रह्मकर्तृत्वसमर्थनेन प्रतिषेधात् । तथा यत्परेण हंति, येन च परेण हन्यते तत्परघातकर्मेति वाक्येन कर्मण एव कर्मघातकर्तृत्वसमर्थनेन जीवस्य घातकर्तृत्वप्रतिषेधाच सर्वथैवाकर्तृत्वज्ञापनात् । एवमीदृशं सांख्यसमयं स्वप्रज्ञापराधेन सूत्रार्थमबुध्यमानाः केचिच्छ्रमणाभासाः प्ररूपयंति तेषां भेदः । कथं ? इति चेत्, तप्तायःपिंडवद्वर्तमानकाले पृथक्त्वं कर्तुं नायाति तेन कारणेन व्यवहारेणाभेदः । निश्चयेन पुनमरणकाले कायादिप्राणा जीवेन सहैव न गच्छंति तेन कारणेन भेदः । यद्येकांतेन भेदो भवति तर्हि यथा परकीये काये छिद्यमाने भिद्यमानेऽपि तिष्ठता है सो इस तरह तिष्ठता आत्मा मिथ्यात्वादि भावोंका कर्ता नहीं होता, क्योंकि ज्ञायकपनका और कर्तापनका अत्यंत विरुद्धपना है । तथा मिथ्यात्व आदि भाव तो होते ही हैं इसलिये उनका कर्ता कर्म ही है ऐसी प्ररूपणा की जाती है । वहां आचार्य कहते हैं-ऐसी वासनाका उघडना है यही पहले कहा था कि आत्मा आत्माको करता है इसलिये कर्ता है उस माननेका अतिशयकर घात है, क्योंकि सदा काल ज्ञायक माना तब आत्मा अकर्ता ही हुआ । इसलिये हम कहते हैं ऐसा अनुमान करना कि ज्ञायक भावके सामान्य अपेक्षाकर ज्ञानस्वभावरूप अवस्थितपना होनेपर भी कर्मसे उत्पन्न हुए मिथ्यात्व आदि भावोंके ज्ञानके समयमें अनादिसे ही ज्ञेय और ज्ञानके भेदविज्ञानकी शून्यतासे परको आत्मा जाननेवालेके विशेष अपेक्षाकर अज्ञानस्वरूप जो ज्ञानका परिणाम उसके करनेसे कर्तापन है । यह अनुमान करने योग्य है । वह कहां तक करना? जबतक कि जिस समयसे ज्ञेय ज्ञानके भेदविज्ञानके पूर्णपनसे आत्माको ही आत्मा जाननेवालेके विशेष अपेक्षाकर भी ज्ञानरूप ही ज्ञानपरिणामकर परिणमते हुए केवल ज्ञातापनसे साक्षात् अकर्तापन हो तबतक कर्तापनका अनुमान करना ॥ भावार्थ-कोई जैन मुनि भी स्याद्वादवाणीके विषयको अच्छीतरह न समझकर सर्वथा एकांतका अभिप्राय करे तथा विवक्षा पलटकर कहे कि आत्मा तो भावकर्मका अकर्ता ही है कर्मप्रकृतिका उदय ही भावको करता है । अज्ञान ज्ञान सोवना जागना सुख दुःख मिथ्यात्व असंयम चारों गतियोंमें भ्रमण तथा जो कुछ शुभ अशुभ भाव हैं उन सबको कर्म करता है, जीव तो अकर्ता है । ऐसा ही शास्त्रका अर्थ करे कि वेदके उदयसे स्त्रीपुरुषके विकार होता है तथा अपघात प्रकृतिके उदयसे परस्परघात प्रवर्तता है । ऐसा एकांतकर जैसे सांख्यमती सब प्रकृतीका कार्य मानता है पुरुषको अकर्ता मानता है, उसीतरह बुद्धिके दोषकर जैनी मुनियोंका भी मानना
SR No.022398
Book Titlesamaysar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManoharlal Shastri
PublisherJain Granth Uddhar Karyalay
Publication Year1919
Total Pages590
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy