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________________ ४४२ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् । [सर्वविशुद्धज्ञानजीवस्य जीवरूपं विस्तरतो जानीहि लोकमात्रं खलु । ततः स किं हीनोऽधिको वा कथं करोति द्रव्यं ॥ ३४३ ॥ अथ ज्ञायकस्तु भावो ज्ञानस्वभावेन तिष्ठतीति मतं । तस्मान्नाप्यात्मात्मानं तु स्वयमात्मनः करोति ॥ ३४४॥ ___ कमैवात्मानमज्ञानिनं करोति ज्ञानावरणाख्यकर्मोदयमंतरेण तदनुपपत्तेः । कमैव ज्ञानिनं करोति ज्ञानावरणाख्यकर्मक्षयोपशममंतरेण तदनुपपत्तेः । कर्मैव स्वापयति निद्राख्यकर्मोदयमंतरेण तदनुपपत्तेः । कमैव जागरयति निद्राख्यकर्मोदयक्षयोपशममंतरेण तदनुपपत्तेः । कर्मैव सुखयति सद्वेदाख्यकर्मोदयमंतरेण तदनुपपपत्तेः । कर्मैव दुःखयति असद्वेदाख्यकर्मोदयमंतरेण तदनुपपत्तेः । कर्मैव मिथ्यादृष्टिं करोति मिथ्यात्वकर्मोदयमंतरेण तदनुपपत्तेः । कर्मैवासंयतं करोति चारित्रमोहाख्यकर्मोदयमंतरेण तदनुपपत्तेः । कर्मैवोधिस्तिर्यग्लोकं भ्रमयति आनुपूर्व्याख्यकर्मोदयमंतरेण तदनुपपत्तेः । अपरमपि यद्यावत्किंचिच्छुभाशुभभेदं तत्तावत्सकलमपि कर्मैव करोति प्रशस्ताप्रशस्तरागाख्यरूपगाथाचतुष्टयं गतं । कश्चिदाह जीवात्प्राणा भिन्ना अभिन्ना वा? यद्यभिन्नास्तदा यथा जीवस्य विनाशो नास्ति तथा प्राणानामपि विनाशो नास्ति कथं हिंसा ? । अथ भिन्नास्तहि जीवस्य प्राणघातेऽपि किमायातं ? तत्रापि हिंसा नास्तीति । तन्न, कायादिपरिणामैः सह कथंचिद्भेदातो वह अभिप्राय मिथ्या है, क्योंकि जीव प्रथम तो द्रव्यरूपकर नित्य है असंख्यात प्रदेशी है लोकपरिमाण है । वहां नित्यका कार्यपना बनता नहीं है क्योंकि कृत्रिम वस्तुका और नित्यपनका परस्पर एकपनका विरोध है नित्य कृत्रिम नहीं होती । एक आत्मा अवस्थित असंख्यात प्रदेशी है उसके जैसे पुद्गलके स्कंधमें परमाणु आ बैठते हैं और निकल जाते हैं उनके कार्यपना बनता है उसतरह इसके कार्यपना नहीं बनता । क्योंकि प्रदेशोंका आना तथा निकल जाना हो तो अवस्थित असंख्यात प्रदेशरूप एकपनेका व्याघात हो जायगा । सकल लोकरूपी घरमात्र विस्तार परिमाण निश्चित अपना समस्तपनेका संग्रहरूप आत्माके प्रदेशोंका संकोचना फैलना उस द्वारकर भी उसके कार्यपना नहीं बनता । उसीतरह इसके कार्यपना नहीं बनता क्योंकि प्रदेशोंका आना और निकल जाना होवे तो अवस्थित असंख्यात प्रदेशरूप एकपनका व्याघात हो । सकल लोकरूपी घरमात्र विस्तार परिमाण निश्चित अपना समस्तपनेका संग्रहरूप आत्माके प्रदेशोंका संकोचना और फैलना उस द्वारकर भी उसके कार्यपना नहीं बनता, क्योंकि प्रदेशोंका संकोचना और फैलना इन दोनोंके भी सूखे गीले चमड़ेकी तरह नियमरूप अपना प्रदेशोंका विस्तार होनेसे उसका हीनाधिक करनेका असमर्थपन है । जो ऐसे अभिप्रायमें वासना हो कि वस्तुके स्वभावके सर्वथा मेटनेका असमर्थपन है इसलिये ज्ञायक भाव तो ज्ञानस्वभावकर ही सदा काल
SR No.022398
Book Titlesamaysar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManoharlal Shastri
PublisherJain Granth Uddhar Karyalay
Publication Year1919
Total Pages590
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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