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________________ अधिकारः ८] समयसारः। ४०५ प्रतिक्रमणं प्रतिसरणं परिहारो धारणा निवृत्तिश्च । निंदा गर्दा शुद्धिः अष्टविधो भवति विषकुंभः ॥ ३०६ ॥ अप्रतिक्रमोऽप्रतिसरणं परिहारोऽधारणा चैव । अनिवृत्तिश्चानिंदाऽगर्हाऽशुद्धिरमृतकुंभः ॥ ३०७॥ यस्तावदज्ञानिजनसाधरणोऽप्रतिक्रमणादिः स शुद्धात्मसिद्ध्यभावस्वभावत्वेन स्वयमेवापराधत्वाद्विषकुंभ एव किं विचारेण । यस्तु द्रव्यरूपः प्रतिक्रमणादिः स सर्वापराधविषापदाकर्षणसमर्थत्वेनामृतकुंभोऽपि प्रतिक्रमणादिविलक्षणाप्रतिकमणादिरूपां तार्तीयगुणेषु प्रेरणं । पडिहरणं प्रतिहरणं मिथ्यात्वरागादिदोषेषु निवारणं धारणा पंचनमस्कारप्रभृतिमंत्रप्रतिमादिबहिर्द्रव्यालंबनेन चित्तस्थिरीकरणं धारणा । णियत्तीय बहिरंगविषयकषायादीहागतचित्तस्य निवर्तनं निवृत्तिः । फिदा आत्मसाक्षिदोषप्रकटनं निंदा गरुहा गुरुसाक्षिदोषप्रकटनं गर्दा । सोहिय दोषे सति प्रायश्चित्तं गृहीत्वा विशुद्धिकारणं शुद्धिः । इत्यष्टविकल्पशुभरूपशुभोपयोगो यद्यपि मिथ्यात्वादिविषयकषायपरिणतिरूपाशुभोपयोगापेक्षया सविकल्पसरागचारित्रावस्थायाममृतकुंभो भवति । तथापि रागद्वेषमोहख्यातिपूजालाभदृष्टश्रुतानुभू बुद्धि संभवती है [च ] और [ अप्रतिक्रमणं अप्रतिसरणं अपरिहारः अधारणा ] अप्रतिक्रमण अप्रतिसरण अपरिहार अधारणा[अनिवृत्तिः अनिंदा अगीं ] अनिवृत्ति अनिंदा अगों [च एव ] और [ अशुद्धिः ] अशुद्धि इसतरह आठ प्रकार [अमृतकुंभः] अमृतकुंभ हैं क्योंकि, यहां कर्तापनाका निषेध है कुछ भी नहीं करना इसलिये बंधसे रहित हैं ॥ टीका-जो प्रथम अज्ञानीजन साधारण अप्रतिक्रमणादिक है वह तो शुद्धात्माकी सिद्धिके अभाव स्वभावरूप होनेसे स्वयमेव अपराध ( दोष )रूप ही है इसलिये उसके विचारनेसे क्या ? वह तो पहले ही त्यागने योग्य है, और जो द्रव्य प्रतिक्रमणादिक है वह सब अपराधरूपपनेसे विषके क्रमको मेटनेमें समर्थ होनेसे अमृतकुंभ भी व्यवहार आचारसूत्रमें कहा है तो भी प्रतिक्रमण अप्रतिक्रमण आदि दोनोंसे विलक्षण ऐसी अप्रतिक्रमण आदिस्वरूप तीसरी भूमिको नहीं देखनेवाले पुरुषके दोषके काटनेरूप अपने कार्य करने में असमर्थपनेकर बंधकार्यके करनेवालेपनेसे प्रतिक्रमणादिक विषकुंभ ही है। अप्रतिक्रमणादिरूप तीसरी भूमि आप शुद्धात्माकी सिद्धिरूप है उसपनेसे सब अपराधरूप विषके दोषोंको मेटनेवाली है इसलिये साक्षात् आप ही अमृतकुंभ है। इसतरह तीसरी भूमि व्यवहार करके द्रव्यप्रतिक्रमणादिकके भी अमृतकुंभपनको साधती है। उस तीसरी भूमिकर ही आत्मा निरपराध होता है । इस तीसरी भूमिकाका अभाव होनेसे द्रव्य प्रतिक्रमणादिक भी अपराध ही है। इसलिये ऐसा सिद्ध हुआ कि अप्रतिक्रमणादिरूप तीसरी भूमिकर ही निरपराधपना है। उसकी प्राप्तिके लिये ही यह द्रव्य
SR No.022398
Book Titlesamaysar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManoharlal Shastri
PublisherJain Granth Uddhar Karyalay
Publication Year1919
Total Pages590
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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