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________________ ४०४ . रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् । [ मोक्षत्वादाराधक एव स्यात् । “अनवरतमनंतैर्बध्यते सापराधः स्पृशति निरपराधो बंधनं जातु नैव । नियतमयमशुद्धं खं भजन सापराधो भवति निरपराधः साधु शुद्धात्मसेवी ॥ ॥ १८७॥" ३०४ ॥ ३०५ ॥ ननु किमनेन शुद्धात्मोपासनेन यतः प्रतिक्रमणादिनैव निरपराधो भवत्यात्मा सापराधस्याप्रतिक्रमणादेस्तदनपोहकत्वेन विषकुंभत्वे सति प्रतिक्रमणादेस्तदपोहकत्वेनामृतकुंभत्वात् । उक्तं च व्यवहारसूत्रे-अपडिकमणं अपरिसरणं अप्पडिहारो अधारणा चेव । अणियत्ती य अजिंदा अगरुहा सोहीय विसकुंभो ॥१॥ पडिकमणं पडिसरणं परिहारणं धारणा णियत्ती य । णिंदा गरुहा सोही अट्ठविहो अमयकुंभो दु ॥ २ ॥ अत्रोच्यते पडिकमणं पडिसरणं परिहारो धारणा णियत्ती य । जिंदा गरहा सोही अट्टविहो होइ विसकुंभो ॥ ३०६॥ अपडिकमणं अप्पडिसरणं अप्परिहारो अधारणा चेव । अणियत्ती य अणिंदा गरहा सोही अमयकुंभो ॥ ३०७॥ च्यापराधविनाशकत्वेनामृतकुंभत्वात् इति । तथा चोक्तं चिरंतनप्रायश्चित्तग्रंथे-"अपडिक्कमणं अपडिसरणं अप्पडिहारो अधारणा चेव । अणियत्तीय अणिंदा अगरुहा सोहीय विसकुंभो ॥ १॥ “पडिकमणं पडिसरणं पडिहरणं धारणा णियत्तीय । जिंदा गरुहा सोही अढविहो अमयकुंभो दु ॥२॥" ॥ ३०४ ॥ ३०५ ॥ अत्र पूर्वपक्षे परिहारः-पडिकमणमित्यादि । पडिकमणं प्रतिक्रमणं कृतदोषनिराकरणं । पडिसरणं प्रतिसरणं सम्यक्त्वादिहो जाता है । सापराधके अप्रतिक्रमणादि हैं वे अपराधके दूर करनेवाले नहीं हैं इसलिये विषकुंभ कहेगये हैं और निरपराधके प्रतिक्रमणादिक हैं वे उस अपराधके दूर करनेवाले हैं इसलिये वे अमृतकुंभ कहे गये हैं । यही व्यवहारके कहनेवाले आचारसूत्रमें कहा है अप्पडि इत्यादि। अर्थ-अप्रतिक्रमण अप्रतिसरण अपरिहार अधारणा अनिवृत्ति अनिंदा अगर्दा अशुद्धि ऐसे आठ प्रकारके लगे हुए दोषका प्रायश्चित करना वह तो विषकुंभ है जहरका भराहुआ घडा है । और प्रतिक्रमण प्रतिसरण परिहार धारणा निवृत्ति निंदा गर्दा शुद्धि, इसतरह आठप्रकारसे लगेहुए दोषका प्रायश्चित्त करना वह अमृतकुंभ है । ऐसा व्यवहारनयके पक्षवालेने तर्क किया था ॥ ३०४।३०५॥ उसका उत्तर आचार्य निश्चयनयको प्रधानकर कहते हैं;-[प्रतिक्रमणं प्रतिसरणं परिहारः धारणा निवृत्तिः निंदा गाँ] प्रतिक्रमण, प्रतिसरण, परिहार, धारणा, निवृत्ति, निंदा, गर्हा, [च शुद्धिः] और शुद्धि इसतरह [ अष्टविधः] आठ प्रकार तो [विषकुंभः] विषकुंभ [ भवति ] है; क्योंकि इसमें कर्तापनकी १ तात्पर्यवृत्ती परिहरणं धारणा णियत्ती य' इति पाठः ।
SR No.022398
Book Titlesamaysar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManoharlal Shastri
PublisherJain Granth Uddhar Karyalay
Publication Year1919
Total Pages590
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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