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________________ ४०२ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् । [ मोक्षतस्य सा न संभवति, इति नियमः । अतः सर्वथा सर्वपरकीयभावपरिहारेण शुद्ध आत्मा गृहीतव्यः, तथा सत्येव निरपराधत्वात् ॥ ३०११३०२३०३॥ को हि नामायमपराधः?संसिद्धिराधसिद्ध साधियमाराधियं च एयहूं। अवगयराधो जो खलु चेया सो होइ अवराधो ॥ ३०४॥ जो पुण णिरवराधो चेया णिस्संकिओ उ सो होइ। आराहणए णिचं वट्टेइ अहं ति जाणंतो ॥ ३०५॥ संसिद्धिराधसिद्धं साधितमाराधितं चैकार्थे । अपगतराधो यः खलु चेतयिता स भवत्यपराधः ॥ ३०४ ॥ यः पुनर्निरपराधश्चेतयिता निश्शंकितस्तु स भवति । आराधनया नित्यं वर्तते, अहमिति जानन् ॥ ३०५ ॥ ज्ञानादिरूपनिर्दोषपरमात्मभावनयैव शुद्ध्यति इत्यन्वयव्यतिरेकादाष्टांतगाथा गता ॥ ३०१॥ ॥ ३०२ ॥ ३०३ ॥ अथ को हि नामायमपराधः? इति पृच्छति;-संसिद्धिराधसिद्धी साधिदमाराधिदं च एयट्ठो कालत्रयवर्तिसमस्तमिथ्यात्वविषयकषायादिविभावपरिणामरहितत्वेन निर्विकल्पसमाधौ स्थित्वा निजशुद्धात्माराधनं सेवनं राध इत्युच्यते संसिद्धिः सिद्धिअनुभवे परको नहीं ग्रहण करे तो बंधकी शंका कैसे हो ? इसलिये परद्रव्यको छोड शुद्ध आत्माका ग्रहण करना तभी निरपराध होता है ॥ ३०११३०२।३०३ ॥ आगे पूछते हैं कि यह अपराध क्या है ? उसका उत्तर अपराधका स्वरूप कहते हैं;[संसिद्धराधसिद्धं] संसिद्ध राध सिद्ध [साधितं च आराधितं] साधित और आराधित [एकार्थ ] ये शब्द एकार्थ हैं। इसलिये [यः खलु चेतयिता] जो आत्मा [अपगतराधः] राधसे रहित हो [सः] वह आत्मा [ अपराधः भवति ] अपराध है [ यः पुन: ] और जो [चेतयिता] आत्मा [निरपराधः] अपराधी नहीं है [ सः तु] वह [निःशंकितः] शंकारहित [ भवति ] है और अपनेको [ अहं इति ] मैं हूं ऐसा [जानन् ] जानता हुआ [आराधनया ] आराधनाकर [नित्यं वर्तते ] हमेशा वर्तता है ॥ टीका-परद्रव्यका परिहार करके जो शुद्ध आत्माकी सिद्धि अथवा साधन उसे राध कहते हैं वहां जिस आत्माके राध अर्थात् शुद्ध आत्माकी सिद्धि अथवा साधन दूरवर्ती हो वह आत्मा अपराध है । अथवा इसकी दूसरी व्युत्पत्ति ( समास विग्रह ) ऐसी कि जिस भावका राध दूरवर्ती हो उस भावको अपराध कहते हैं । उस अपराधकर जो आत्मा वर्ते वह आत्मा सापराध है। १ नेयं गाथात्र तात्पर्यवृत्तौ।
SR No.022398
Book Titlesamaysar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManoharlal Shastri
PublisherJain Granth Uddhar Karyalay
Publication Year1919
Total Pages590
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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