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________________ ३९६ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् । [ मोक्षप्रज्ञया गृहीतव्यो यो ज्ञाता सोऽहं तु निश्चयतः । अवशेषा ये भावास्त मम परा इति ज्ञातव्याः ॥ २९९ ॥ चेतनया दर्शनज्ञानविकल्पानतिक्रमणाचेतयितृत्वमिव द्रष्टत्वं ज्ञातृत्वं चात्मनः स्वलक्षणमेव । ततोहं द्रष्टारमात्मानं गृहामि यत्किल गृण्हामि तत्पश्याम्येव, पश्यन्नेव पश्यामि, पश्यतैव पश्यामि, पश्यते एव पश्यामि, पश्यत एव पश्यामि, पश्यत्येव पश्यामि, पश्यंतमेव पश्यामि । अथवा-न पश्यामि, न पश्यन् पश्यामि, न पश्यता पश्यामि, न पश्यते पश्यामि, न पश्यतः पश्यामि, न पश्यति पश्यामि, न पश्यंतं पश्यामि । किंतु यिता द्रष्टा ज्ञाता च स्यात् ? उच्यते-चेतना तावत्प्रतिभासरूपा सा तु सर्वेषामेव वस्तूनां सामान्यविशेषात्मकत्वाद् द्वैरूप्यं नातिकामति । ये तु तस्या द्वे रूपे ते दर्शनज्ञाने, ततः सा ते नातिक्रामति । यद्यतिक्रामति ? सामान्यविशेषातिक्रांतत्वाचेतनैव न भवति । तदभावे द्वौ दोषौ स्वगुणोच्छेदाच्चेतनस्याचेतनतापत्तिः, व्यापकाभावे व्याप्यस्य चेतनस्याभावो वा । ततस्तदोषभयादर्शनज्ञानात्मिकव चेतनाभ्युपगंतव्या । अद्वैतापि हि चेतना जगति चेद् दृग्ज्ञप्तिरूपं त्यजेत् तत्सामान्यविशेषरूपविरहात्सास्तित्वमेव त्यजेत् । तत्त्यागे जडता चितोऽपि भवति व्याप्यो विना देखता हूं देखते हुएमें ही देखता हूं देखते हुएको ही देखता हूं । अथवा नहीं देखता न देखते हुएको देखता हूं न देखतेकर देखता हूं न देखतेके लिये देखता हूं न देखतेसे देखता हूं न देखतेमें देखता हूं न देखतेको देखता हूं । तो कैसा हूं ? सर्व विशुद्ध एक दर्शनमात्र भाव मैं हूं । इसतरह तो दर्शनपर कर्ता कर्म करण संप्रदान अपादान अधिकरण लगाके फिर उनका निषेधकरके एक दर्शनमात्र भावस्वरूप आत्माको अनुभवरूप करना । तथा उसीतरह ज्ञानपर भी लगाना । जो जाननेवाला ज्ञाता आत्माको मैं प्रहण करता हूं जो ग्रहण करता हूं सो निश्चयसे जानता ही हूं जानताहुआ ही जानता हूं जानताकर ही जानता हूं जानताके लिये जानता हूं जानतासे ही जानता हूं जानतामें ही जानता हूं जानताको ही जानता हूं । अथवा नहीं जानता न जानते हुएको जानता हूं न जानतेकर जानता हूं न जानतेके लिये जानता हूं न जानतासे जानता हूं न जानतेमें जानता हूं न जानतेको जानता हूं। तो कैसा हूं? सर्वविशुद्ध एकजाननक्रियामात्र भाव में हूं। इसतरह ज्ञानपर छह कारक भेदरूप लगाके फिर अभेदरूप करनेको कारकभेदका निषेधकर एक ज्ञानमात्र अपना अनुभव करना ॥ भावार्थ-पहले तो सामान्य चेतनाका अनुभव कराया । आत्माको प्रज्ञाकर ग्रहण करना पहले कहा था सो चेतनाका अनुभव करना ही ग्रहण करना है कुछ अन्य वस्तुका ग्रहण करना नहीं है । तथा अनुभव करना अनुभव करनेवाला अनुभव जिसकर किया जाय इत्यादि छह कारक भेदरूप कहकर अभेद विवक्षामें कारकभेदका निषेध किया एक शुद्ध चेतनामात्र ही कहा था । अब
SR No.022398
Book Titlesamaysar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManoharlal Shastri
PublisherJain Granth Uddhar Karyalay
Publication Year1919
Total Pages590
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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